ब्रह्म मुहूर्त्त ध्यान उपरान्त सत्संग - आदिगुरू शंकराचार्य जी द्वारा रचित 'आत्मबोध' - श्लोक 9
सत (नित्य अस्तित्व) चित (नित्य सजग) आत्मानी अनूस्यूते (सर्व व्याप्त)
नित्ये विष्णौ प्रकल्पिता: (मूल एक भेद मात्र कल्पना)
व्यक्त्यो (अभिव्यक्त) विविधा: सर्वा हाटके (स्वर्ण) कटकादिवत् (आभूषण)।९।
सत - सत्य किसे कहें बड़ा सापेक्ष शब्द है जिसका अस्तित्व नित्य बना रहता है जिसका अस्तित्व नित्य बना रहता है जिसका अस्तित्व कभी मिट नहीं सकता, अनन्त वही सत्य है।
चित - चित अथवा चिद, क्या है? सजगता अथवा चेतना। सजग शब्द लिया केवल एक संकेत देने के लिए मूलत: चेतना। जो सतत व नित्य चेतन है वही चित है।
आत्मानी अनूस्यूते - आत्म रूप वह सर्व व्याप्त है, अनूस्यूते सर्व व्याप्त है कोई स्थान नहीं है
नित्ये विष्णौ प्रकल्पिता: - विष्णु शब्द यहाँ परमेश्वर के लिए लिया गया। जैसे श्रीमद भगवद गीता में अर्जुन के अनेक नाम हैं उसी प्रकार पिछले श्लोक में परमेश्वर और वर्तमान में 'विष्णौ' प्रयोग किया गया। नाम उसी सत्ता को ही जाता है क्योंकि आगे कहा है - मूल तो एक ही है प्रकल्पित है शेष सब उपस्थित, उपलब्ध, प्रतीत; केवल उसके होने से ही हमारी कल्पनाओं में हमारे अनुभव में आते हैं। मूल एक ही है जो सर्व व्यापक है। एक प्रकार से चेतना की व्याख्या, ब्रह्म की व्याख्या दी जा रही है एक प्रकार से, कि उसका अस्तित्व नित्य है वह नित्य चेतन है। आत्मा स्वरूप वह सर्व व्याप्त है। उसी परम सत्ता के होने से बाकी सब कुछ प्रतीति में आता है।
व्यक्त्यो विविधा: सर्वा - नाना प्रकार से व्यक्त होता है सब जैसे:-
हाटके कटकादिवत् (आभूषण)।९। -जैसे स्वर्ण के अनेक आभूषण मूलत: बने तो स्वर्ण से ही हैं और तो किसी से नहीं बने। गला दीजिए तो सब सोना हो जाता है, दोष हटा दें, खोट हटा दें तो सब सोना। आभूषण सोने से ही बनते हैं गलाने पर सोना ही जो जाते हैं। मूल क्या है? सोना। ठीक उसी प्रकार मूल वही सत्ता है वही ईश्वरीय सत्ता मूल है। केवल उसमें से उत्पन्न होने वाली विविध प्रकार की प्रतीतियाँ हैं projections हैं। वही है जो नित्य है, न केवल उसका अस्तित्व नित्य है पर वह नित्य चेतन भी है। वह परिवर्तनों से परे है उसमें कोई परिवर्तन सम्भव नहीं है। चेतना से कुछ निकाल नहीं सकते और कुछ डाल भी नहीं सकते। आत्मा वह परिपूर्ण है, नित्य है, चेतन है और व्याप्त है। इसीलिए जैसे-जैसे साधनाएँ आगे बढ़ती हैं और साधक अपने भीतर, अपने हृदय में अपनी छाती में, अपने मस्तिष्क में एक प्रकार का विस्तार अनुभव करने लगता है। उसे लगता है जैसे मैं फैल रहा हूँ बढ़ रहा हूँ। शरीर के स्तर पर भी लगता है फैलता नहीं है उतना ही रहता है पर फैलाव की विस्तार की एक अनुभूति आती है।
और साथ ही साथ आप अन्यों के भाव को भी समझना आरम्भ कर देते हो। इसका अर्थ यह नहीं है कि आप फिर लड़ते नहीं हो, वह सब तो सामान्य लोकाचार में ऐसे ही चलता है। उसमें कोई विशेष परिवर्तन नहीं आएगा पर आप दूसरे के भाव का हृदय से समाहन करते हो, समझने लगते हो, you try understanding others more. यह व्याप्ति का ही स्वरूप है, यह व्याप्ति का ही स्वरूप है जो धीरे-धीरे जैसे-जैसे आत्मा की ओर हमारी निकटता बढ़ती है, आवरण शक्ति की पकड़ ढीली पड़ती है, वैसे-वैसे एक व्यापकता आती है। हम अभी उसे आंशिक अनुभव करते हैं, कभी करते हैं कभी अनुभव छिटक जाता है पर ब्रह्म ऋषि उसी अवस्था में ही रहते हैं। इसीलिए उनकी व्याप्ति, काल से भी परे ब्रह्माण्डों में हो जाती है। वे कहीं भी बैठकर के कहीं का भी कुछ भी जान सकते हैं। चूँकि उनकी व्याप्ति हो गई। हम साधना में वह व्याप्ति आंशिक और थोड़ी-थोड़ी अनुभव करते हैं स्वभाव के स्तर पर अनुभव करते हैं। कुछ शरीर के स्तर पर भी थोड़ा बहुत अनुभूति आती है when you try to accomodate understand others more more & more. व्यवहार बाहर से सामान्य रहेगा मैंने यह नहीं कहा कि आप क्रोध में होने पर झगड़ा नहीं करोगे परन्तु आप मूल में कहीं समझ चुके हो इसीलिए बात को जल्दी छोड़ दोगे। क्योंकि आपमें व्यापकता आ गई है 'अनूस्यूते' व्यापकता आ गई है। आप व्याप्त होना आरम्भ हो गए हैं क्योंकि आवरण शक्ति की पकड़ ढीली हो गई है। इस प्रकार का भाव साधक को बार-बार पुनरावृत्ति करने से बहुत बड़े आत्म विस्तार की ओर लेकर जाता है। इस ज्ञान से इसे अनेक रूपों में नित्य प्रति सुनने से आत्मबोध की ओर कदम बढ़ते हैं। ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या अभी हम वर्तमान में सुन ही तो रहे हैं केवल पर इसे सुनते चले जाने से भी आभास दृढ़ होता है, प्राथमिकताएँ बदलती हैं। कहाँ लड़ना, अड़ना, और कितना; यह बहुत बड़ा परिवर्तन आने लगता है। कहाँ लड़ना, अड़ना, और कितना; यह बहुत बड़ा परिवर्तन एक साधक में होता है। जहाँ पहले अनेक विषयों पर बहुत लम्बे संग्राम होते थे, वे संग्राम होते हैं किन्तु अवधि कम होने लगती है।