ज्योतिष्मति पर विशेष ध्यान के उपरान्त आज एक महत्त्वपूर्ण श्रृंखला आरम्भ होने जा रही है। आदिगुरू शंकराचार्य जी महाराज के द्वारा रचित एक रचना जिसका नाम है 'आत्म बोध'।
कहते हैं (जैसा कि पढ़ा गया) कि अपने एक प्रिय शिष्य के लिए जिसे उन्होंने जगन्नाथ पुरी का मठ जब स्थापित किया तो उसका अधिकार संचालन ईत्यादि उसे दिया; उसके लिए इसकी रचना की थी। आत्म बोध विशुद्ध रूप से साधकों के लिए ही है। अन्य किसी के लिए? नहीं अन्यों के लिए उसमें विशेष अभी नहीं है। ज्यों-ज्यों साधक आत्म साक्षात्कार के उद्देश्य को मुख्य जानकर आगे बढ़ेगा वैसे -वैसे इस रचना का महत्त्व उसके लिए बढ़ता चला जाएगा। इस 'आत्म बोध' रूपी रचना में 67 श्लोक हैं। एक आह्वानात्मक श्लोक है जो कई लोगों ने अपने-अपने स्वरूप से जोड़ कर 68 भी किया है पर मूल श्लोक 67 हैं। इन श्लोकों की यात्रा हमें बहुत कुछ स्मरण कराएगी, बहुत कुछ से जोड़ेगी और साथ ही साथ बहुत अस्ति भाव को पुष्ट भी करेगी। इस प्रकार के ग्रन्थ, भले ही छोटा सा है मैं ग्रन्थ कहूँगा, इसका अध्ययन आत्म उत्कर्ष के पिपासुओं के लिए बहुत लाभकारी होता है। आइए आज प्रथम श्लोक का अध्ययन करते हैं बड़े सरल रूप से समझे जाने वाले हैं।
तपोभि: क्षीणपापानां
शान्तानां वीतरागिणाम्
मुमुक्षुणाम् अपेक्ष्यो ऽयम
आत्मबोधो विधीयते ।१।
तपोभि: क्षीणपापानां - तप के द्वारा जिनके पाप क्षीण हो चुके हैं, जिनके कर्म बन्धन ढीले हो चुके हैं, किसके द्वारा? तप के द्वारा अर्थात उत्कर्ष हेतु तप का कोई विकल्प नहीं है। जिसे उत्कर्ष चाहिए उसे तप करना ही पड़ेगा, तप के अतिरिक्त कोई किसी प्रकार का विकल्प नहीं है। 3 प्रकार के मुख्य तप - 3 प्रकार के तप; श्रीमद भगवद गीता के अध्याय 17 श्लोक संख्या 14,15,16 में इन तीन प्रकार के तप का वर्णन आता है। यूँ तो तप को हम संयम के अन्तर्गत इन तीनों में ही और भी कई प्रकार से विकसित कर लेते हैं। पर मूलत: भगवद गीता में व्यास ने कहा कि 3 तप शरीर के स्तर पर, वाणी के स्तर पर और मन के स्तर पर। शरीर के स्तर पर स्वच्छता सेवा ईत्यादि ये शरीर के तप हैं। वाणी के स्तर पर विशेष तप कि वाणी से कोई आहत न हो और सार्थक अध्ययन भी किया जाए। मन के धरातल पर अपनी मंशा, नीयत, intention को पवित्र रखें। आत्म मूल्यांकन, आत्म परिष्कार के द्वारा उसकी चेष्टा करें, यह मन के धरातल का तप है। यह इसका मोटा उल्लेख है। इन तीन प्रकार के तप के द्वारा, मनुष्य के पाप धीरे-धीरे क्षीण होते चले जाते हैं और उसका परिष्कार होता चला जाता है।
तपोभि: क्षीणपापानां
शान्तानां (हृदय) वीतरागिणाम्
चूँकि जैसे-जैसे पाप क्षीण होंगे, अचिंत्य चिंतनम् से बुद्धि मुक्त होगी। अकारण ही उठापटक जिसका कोई कारण नहीं, जीवन के महत्त्वपूर्ण सार्थक उद्देश्यों के लिए प्रयास करना, चेष्टा करना तो हमारा धर्म है कर्त्तव्य है। पर 'अचिंत्य चिंतनम्', अकारण की ओढ़ी गई समस्याएँ, ओढ़ी गई कामनाएँ जिनका जीवन में कोई औचित्य नहीं है उनसे व्यक्ति धीरे-धीरे, जैसे-जैसे कर्म बन्धन ढीले होते हैं उनसे मुक्त होता है और भाव स्तर पर शान्त होना आरम्भ होता है। यहाँ हृदय शब्द मैंने बीच में जोड़ा है, हृदय अर्थात भाव स्तर पर, सबसे बड़ी शान्ति भाव स्तर पर चाहिए। मनुष्य के विचार उसके भाव जगत को आन्दोलित कर देते हैं और भाव जगत जब आन्दोलित हो जाता है मनुष्य का अस्तित्व हिल जाता है। इसलिए 'हृदय - शान्त' अर्थात भाव भी शान्त जो जाए। कब होगा? जब पाप क्षीण होने लगेंगे, उठापटक समाप्त होगी। अकारण की उठापटक, 'वीतरागिणाम्' ऐसे व्यक्ति में निश्चित है। अकारण की कामनाएँ, अकारण की होड़ समाप्त होगी, उसमें वह वैराग्य भाव जागेगा। वीतरागिणाम् यह समझें कि राग और द्वेष से जो मुक्त हो गया, जिसमें राग और द्वेष की पकड़ ढीली हो गई। जब इसकी बात कही जाए कि पाप क्षीण हो गए, हृदय शान्त हो गया, वैराग्य अर्थात राग द्वेष से मुक्ति तो साधक को यूँ जानना चाहिए मेरे भीतर उत्कर्ष हो रहा है, भले ही अभी पूर्ण उत्कर्ष नहीं भी हो।
We all are under construction हम सबमें निर्माण चल रहा है हम निर्माणाधीन हैं, हम निर्माणाधीन हैं। हम निश्चित रूप से अपने-अपने अंशों में तप करके अपने कर्म बन्धनों को ढीले करने में सतत लगे हैं, हम सतत आत्म मूल्यांकन में लगे रहते हैं। असफल चेष्टाएँ करना सबसे बड़ी साधना है मैंने इसका पहले भी उल्लेख किया और जिससे धीरे-धीरे हम अनुभव करते हैं कि कुछ अंशों में भावनाएँ भी शान्त होनी आरम्भ हो गई हैं। यह ठीक है कि अकारण की उठापटक यदि मस्तिष्क में चलती भी रहती है तो हम अपने आप से पूछते हैं - आखिर क्यों? वह पूछा गया प्रश्न भी एक उत्कर्ष है, एक आत्मिक प्रगति है। वीतरागिणाम् - जिसका हृदय शान्त हो गया पाप क्षय होने आरम्भ हो गए, जिसमें राग द्वेष से मुक्ति एक कदम पीछे हटना।
मुमुक्षुणाम् अपेक्ष्यो ऽयम
आत्मबोधो विधीयते ।१।
मुमुक्षुणाम - जिसे केवल और केवल आत्म उत्कर्ष चाहिए उसकी अन्य कोई प्राथमिकता priority है ही नहीं॥ उसकी प्राथमिकताओं की सूची में सर्वोपरि क्या है? आत्म उत्कर्ष! उसने जान लिया है कि इस पूरी पृथ्वी पर कोई भी उपलब्धि, उपलब्धि होकर भी वह अपने आप में अनित्य है वह रहने वाली नहीं है; वह होगी, समाप्त हो जाएगी। एक लहर आएगी शान्त हो जाएगी। अत: जिसने अपने परम उद्देश्य को 'आत्म साक्षात्कार' या यूँ कहें 'आत्मानो मोक्षार्थ जगत हिताय च' मान लिया। जिसमें तड़प बची तो बस एक - 'आत्म उत्कर्ष', उसे मुमुक्षु जानो। मुमुक्षु जिसकी जिज्ञासा, जिसकी वेदना, जिसका क्रन्दन, जिसका आर्तनाद केवल और केवल आत्म उत्कर्ष हेतु समर्पित है वह मुमुक्षु है। वह उसके अतिरिक्त अपने आप से कोई आशा अपेक्षा करता ही नहीं। मनुष्य अपने आप से बड़ी आशाएँ करता है। भीतर की खिन्नता अपने आप से बहुत सी आशाओं की होती हैं। हम अपेक्षाएँ अपने आप से भी करते हैं, दूसरों से भी होती हैं। जिसने अपने आप से केवल एक आशा रखी, केवल एक कि मुझे आत्म उत्कर्ष प्राप्त करना है, वह मुमुक्षु है।
आत्मबोधो विधीयते - उनके लिए भी मैंने इसके रचना की है। मैंने कौन ? 'आदिगुरू शंकराचार्य'। किसके लिए? जिन्हें उस आत्मबोध को पाना है। उस आत्म तत्त्व को जानना है जो नित्य है, बुद्ध है, अजन्मा है, शुद्ध चैतन्य है। नित्य शुद्ध, नित्य बुद्ध, नित्य मुक्त जिन्हें उसके विषय में जानना है, आत्मा का बोध प्राप्त करना है, यह उनके लिए रचना की गई है। इसलिए यदि कोई ऐसा व्यक्ति इसे पढ़ना आरम्भ कर रहा है जो अपने आपको इसमें नहीं देख रहा तो वह पहले ही श्लोक से वापिस लौट सकता है। यह भाव बड़े सशक्त रूप में आदिगुरू शंकराचार्य ने पहले ही कह दिया। कहते हैं न कि Who should study this? किसे पढ़ना चाहिए? उसे पढ़ना चाहिए जिसके तप के द्वारा पाप धीरे-धीरे क्षीण हो रहे हैं, जिसका हृदय शान्त हो रहा है, जो राग और द्वेष की उठापटक से पीछे हटना आरम्भ हो गया है। जिसके भीतर आत्म साक्षात्कार की एक तीव्र जिज्ञासा एक तड़प जाग चुकी है जो अपने आप से केवल यही आशा कर रहा है; ऐसे जीव जिसके लिए आत्म बोध सर्वोपरि उद्देश्य है यह रचना मैंने उनके लिए की है।
तपोभि: क्षीणपापानां
शान्तानां (हृदय) वीतरागिणाम्
मुमुक्षुणाम् अपेक्ष्यो ऽयम
आत्मबोधो विधीयते
इस श्लोक की रचना मुमुक्षुओं के लिए जिज्ञासुओं के लिए तड़प को जीने वालों के लिए एक मार्ग प्रशस्त करती है कि आने वाले बाकी श्लोक हमें निश्चित रूप से बहुत आलोकित करेंगे, सबल करेंगे, पुष्ट करेंगे। इस भाव के साथ आज हमने इसका अध्ययन आरम्भ किया है। ज्योतिष्मति का ध्यान जिसके प्रभाव एक सप्ताह उपरान्त धीरे-धीरे आने आरम्भ होंगे। ज्योतिष्मति के ध्यान के साथ-साथ आत्मबोध रूपी सद्ग्रन्थ का अध्ययन और सत्संग अपने-आप में जिसे कहा जाए its going to be a fusion. एक ऐसा सम्मिश्रण जो हमें एक अद्भुत आत्मिक उत्कर्ष और सन्तोष प्रदान कर जाएगा जिसका अनुभव तुम्हें स्वयं होगा।
हाथ कंगन को आरसी क्या
पढ़े लिखे को फारसी क्या