जैसे पानी में बुलबुले जन्मते, दिखते और विलय होते, आत्म बोध आदि शंकराचार्य जी द्वारा रचित श्लोक 8

जैसे पानी में बुलबुले जन्मते, दिखते और विलय होते, आत्म बोध आदि शंकराचार्य जी द्वारा रचित श्लोक 8

ब्रह्म मुहूर्त्त ध्यान उपरान्त सत्संग - आदिगुरू शंकराचार्य जी द्वारा रचित 'आत्मबोध' - श्लोक 8

पानी में बुलबुले बनते हैं रहते हैं दिखाई देते हैं 'पक' से पानी में ही विलय हो जाते हैं। पानी में ही जन्म लेते हैं पानी में ही स्थिर दिखाई देते हैं पानी में ही विलय हो जाते हैं। इस पूरी सृष्टि का क्रम कुछ पानी के बुलबुले जैसा ही है। उसी अव्यक्त अनन्त में उत्पन्न, उसी में स्थित और उसी में विलय; ये तीनों अवस्थाएँ उसी अव्यक्त में ही घटती हैं। जब तक यह बोध नहीं होता कि पानी का बुलबुला कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं अपितु पानी ही है, तब तक बुलबुला अपने आपको अपने अस्तित्व को स्वतन्त्र मानता है। यही भाव इस श्लोक के माध्यम से देने का प्रयास किया गया है। आइए श्लोक पर आते हैं:-

उपादाने अखिलाधारे, जगन्ति परमेश्वेरे सर्ग (उठती)
स्थिति (रहती) लयन (विलय) यान्ति बुदबुदानी ईव वारिणि (जल)

उपादाने अखिलाधारे - इस पूरे जगत का आधार, किसका? उपादाने अर्थात जो कुछ भी हमें सृष्टि की रचना रूप दिखाई दे रहा है, जो कुछ भी, उस पूरे का आधार
जगन्ति परमेश्वरे सर्ग - अनेकों जगत, यहाँ जगत का बहुवचन है, जगत एक नहीं है, कई जगत हैं। परमेश्वेरे सर्ग - उसी में से उठते हैं सारे जगत
स्थिति लयन - स्थिति अर्थात उसी में रहते हैं, लयन अर्थात उसी में विलय हो जाते हैं

यान्ति बुदबुदानी ईव वारिणि - जैसे बुलबुले पानी में (वारिणि यहाँ जल को कहा है), जैसे बुलबुले पानी में ठीक उसी प्रकार समस्त जगत हैं। यहाँ ध्यान रहे एक जगत का उल्लेख नहीं है, जितने भी जगत हैं। कितने जगत हैं? यूँ तो हम 14 जगत मानते हैं, 7 अधोगामी हैं 7 ऊर्ध्वागामी हैं। ॐ भू:, ॐ भुव: ॐ स्व: ॐ मह: ॐ जन: ॐ तप: ॐ सत्यम्, हम 14 जगत मानते है पर केवल 14 ही नहीं होंगे, न जाने और कितने होंगे। जितने भी जगत होंगे, जिन अवस्थाओं में भी होंगे in all dimensions, उन सब में एक ही क्रम कार्य करता है। यह ब्रह्म ऋषि से कम कोई अन्य नहीं कह सकता। हम इस दुनिया के विषय में नहीं जानते और वे किसकी बात कर रहे हैं? जाने-अनजाने देखे-अनदेखे जगत की बात कर रहे हैं। जितने भी जगत हैं उन सबमें, सब कुछ जो उपादाने (जो कुछ भी रचना में आता है पंचभूत materials जो कुछ भी रचना में आता है वह सब कुछ) का एक ही आधार (अखिलाधारे) है; वह परमेश्वर है वह अव्यक्त है। उसी में उठते हैं उसी में विलय हो जाते हैं।

यह श्लोक आत्मबोध से थोड़ा सा भिन्न श्लोक है।

'आत्मबोध' अर्थात आत्मबोध में तो केवल हम अपने अस्तित्व की बात कर रहे थे - आत्मा और बोध। यह श्लोक थोड़ा सा अलग है। इसीलिए सम्भवत: कई लोगों ने इस श्लोक का समावेश अपने आत्मबोध में नहीं किया। रचना तो आदिगुरू शंकराचार्य जी की है पर कुछ मनीषी इस श्लोक का उल्लेख अपने यहाँ छोड़ गए हैं, उन्होंने नहीं किया। यह मेरे अध्ययन में सामने आता है।

यह बात भाव रूप उस साधक को बताई जा रही है जो अभी अन्तर्मुखी होकर के 'मैं क्या हूँ?' की यात्रा में रत है। यह उसे बताई जा रही है कि तुम जो कुछ भी वर्तमान में अनुभव में ला पा रहे हो, और जो कुछ भी तुम्हारे अनुभव में नहीं भी आ रहा, उस तक की बात हो रही है। वह सब उसी में ही जन्म लेता उसी में ही विलय हो जाता है।

नचिकेता अपनी पिता को यही कहते हैं, पिता क्रोध में कह देते हैं जा तुझे यम को देता हूँ, बाद में दुख मनाते हैं तो फिर नचिकेता कहते हैं दुख क्या? मनुष्य फसल की भाँति अवस्था पाता है, पकता है जैसे फसल पकती है और फिर बस पक करके हम तो खाद्य फसल काट लेते हैं अन्यथा जंगल में हो तो सड़ जाती है। ठीक वैसे ही यहाँ पानी के बुलबुले का उदाहरण दिया गया, उसी से जन्म, सर्ग उसी में स्थिति, उसी में लयन उसी में लय हो जाता है।

यह अपना आपा जितना भी आज प्रतीति में है, आवरण शक्ति के प्रभाव से प्रतीति में है जिसे हम माया शक्ति भी कहते हैं। आवरण शक्ति के प्रभाव से जो कुछ प्रतीति में है यह ठीक वैसा ही है जैसे चलते हुए फिल्म, चलते हुए सीरियल धारावाहिक, चलचित्र के रूप में हैं। पर जब वे धारावाहिक बन जाते हैं तो हर पात्र के साथ एक ऐसा जुड़ाव हो जाता है कि वह अपना सा लगता है। उसके दुख अपने लगने लगते हैं, वह हमारी चर्चाओं का विषय बन जाता है। यहाँ तक कि हम उतने अंशों में गुँथ जाते हैं कि उसके जीवन में कुछ अप्रिय घटनाक्रम हो जाए तो उसे बदलना चाहते हैं। ऐसा बहुत से धारावाहिकों में हुआ किसी पात्र को मारा गया, लोगों ने दर्शकों ने बहुत विरोध किया और उस पात्र को जीवित करना पड़ा, ऐसा भी बहुत हुआ। अरे वह तो एक स्क्रिप्ट थी, एक कहानी थी, एक नाटक था, एक मंचन था, एक चलचित्र था, केवल प्रकाश और ध्वनि का एक खेल करके तुम्हें दिखाया गया मनोरंजन; मन के रंजन के लिए। पर तुम तो गुँथ गए, तुम तो उस पात्र को बिलकुल अपना ही अस्तित्व मान बैठे, यहाँ तक कि तुम इस बात को सहन नहीं कर पाए, वहन नहीं कर पाए और तुमने चाहा वह परिवर्तित हो।

यदि देखे गए मन रंजन, मन रंजन के विषयों में ऐसा है तो फिर वह जो छूकर अनुभव होने वाली सृष्टि है उसकी माया में उसकी आवरण शक्ति में ग्रसित हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है स्वाभाविक है। यही भाव निरन्तर आत्मबोध में देने की चेष्टा ब्रह्म ऋषि कर रहे हैं!

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