Part - 16. निराशी वह जो हर और जीत से परे हो चुका हो ; व्यवस्थित चिन्तन विचारों की शक्ति का आधार

Part - 16. निराशी वह जो हर और जीत से परे हो चुका हो ; व्यवस्थित चिन्तन विचारों की शक्ति का आधार

व्यवस्थित चिंतन विचारों की शक्ति का आधार है

इस श्रृंखला के अन्तर्गत यात्रा करते हुए हम श्रीमद भगवद गीता के अध्याय 3 के श्लोक 30 पर आ गए॥ श्रृंखला लम्बी हो चुकी इसलिए बार-बार उसे दोहरा पाना सहज नहीं। तप करते समय मुख्य दुर्योधन रूपी जिस अपने भीतर की न्यूनता shortcoming को हमने पहचाना, उसे परास्त करने के लिए हम अपने संयम के द्वारा प्रयासरत होंगे॥ अणुव्रत के द्वारा, अणु की शक्ति को व्रत रूप में, संयम रूप में, तप रूप में जीवन में अपनाते हुए अपने ऊपर अधिकार प्राप्त करने की चेष्टा करेंगे, to Gather control upon yourself. यात्रा सहज नहीं है, संयम तप कभी भी सहज नहीं रहा, न कभी रहेगा और रहे भी क्यों?

ऊर्जा को जन्म देने के लिए पुरुषार्थ आवश्यक है॥ ऐसे में व्यक्ति किस प्रकार अपने आप को संजोए अपने आप को जुटाकर के चले कि हजार असफलताओं में से होकर भी वह अपने तप में निरन्तर रत रहे॥Always engaged into his/her kind of तप (तप को अंग्रेजी शब्द नहीं दूँगा मैं). असफलताओं के होते हुए भी अपने आप को कैसे जुटाएँ? उसे जुटाने के लिए मनन आवश्यक है॥ आत्म परिष्कार की साधना हेतु जब तक मनुष्य में मनन की क्षमता भी जागृत नहीं होगी, तब तक यह सम्भव नहीं होगा॥ मनन की उस अद्भुत क्षमता को जगाने के लिए श्रीमद भगवद गीता के इन श्लोकों का ज्ञान, इनका मर्म बहुत बड़ी सहायता करता है॥ जिस श्लोक को हमने कल आरम्भ किया उसने यह बात निश्चित कर दी कि तुम ही अपना इष्ट और तुम ही अपना उद्देश्य बन जाओ॥ अब तुम और उद्देश्य एक हो गए और कुछ बचा ही नहीं॥ जिस व्रत को तुमने लिया, जिस संकल्प को लिया, जिस संयम को तुमने निश्चित किया वह भले आहार से हो, विहार से हो, व्यवहार से हो, समय से हो, वाणी से हो, अर्थ से हो, किसी भी विषय का हो सकता है पर जो भी लिया उसे उद्देश्य मानकर अब तुम वही बन जाओ॥ अब तुम्हारा उद्देश्य ही तुम हो, तुम्हारा उद्देश्य ही तुम्हारा इष्ट है, लक्ष्य है, ध्येय है॥ एक हो जाओ, उसी को सब समर्पित करके अब केवल उसी को जीना आरम्भ करो॥

इतना महत्त्व जब किसी भाव को दे दिया जाए, तो वह भाव रूप हो जाता है और वही हो जाता है जिस भाव पर उसने अपने आप को न्यौछावर किया है॥ Sacrifice yourself to that objective जो संकल्प है॥ अब निश्चित रूप से प्रतिदिन जीवन जीते हुए असफलताएँ सबसे अधिक आती हैं॥ कोई भी तप लेकर चलो, असफलताओं का समना करना पड़ता है, बाधाओं का सामना करना पड़ता है॥ प्रलोभन Ellurements, deviation, deflect हर घड़ी बाहर से कहीं न कहीं कोई न कोई आकर के कान में डालेगा कि इससे क्या होने वाला है? ऐसे जीवन मिला किस लिए है? यदि इस सबकी आवश्यकता नहीं थी तो भगवान बनाता क्यों? भगवान ने बनाए न? किसके लिए? हमारे लिए॥ अच्छा चलो, न सही मर्यादा में ही सही थोड़ा सा ही सही, संकल्प को डिगाने के लिए बुद्धि के तर्क और बाहर के अनेकों दुष्प्रभाव ऐसे ऐसे स्वरूप लेकर के आएँगे कि आपको एकाएक लगने लगेगा कि बात तो इसकी ठीक है, होता तो यही है, है भी यही॥

ऐसी अवस्था में अपने आप को संजोकर के आगे बढ़ना बिना किसी महत्त्वपूर्ण सूत्र के सम्भव नहीं॥ यह श्लोक 3 सूत्र देता है॥ निराशी, निर्मम, विगतज्वरा, यह 3 सूत्र इसकी दूसरी पंक्ति में आते हैं॥ ये 3 सूत्र क्या कहते हैं? यह बहुत गहरा प्रशिक्षण देते हैं॥ इसे अपने जीवन के अनेकों प्रकार के संग्राम में अपनाया जा सकता है समझा जा सकता है॥ पर हमारे इस संकल्प के निर्वहन हेतु इन तीनों को एक-एक करके समझना होगा॥

सबसे पहला, निराशी - 'निराशी' से तात्पर्य है आशा विहीन होकर के, क्योंकि आशा एक ऐसा पुट है एक ऐसा भाव है जिसका दूसरा भाग निराशा है॥ एक सिक्के के दो पक्ष हैं एक आशा दूसरा निराशा॥ जहाँ hope है वहाँ कहीं न कहीं मनुष्य को आशंका रहेगी 'ऐसा न हुआ तो?' इसलिए आशा निराशा दोनों साथ-साथ हैं परस्पर॥ इसीलिए कालहीन अध्यापक कहता है निराशा को पकड़ो॥ निराशा अर्थात dissuasion नहीं, अपने आप को हतोत्साहित करना नहीं॥ तुम कोई भी तप करोगे, एकाएक परिणाम सामने आने वाले नहीं हैं॥ हो सकता है तुम्हारे सारे प्रयास कई बार संकल्प लेने पर बार-बार टूटें॥ ऐसे में क्या होगा? ऐसे में यदि तुमने हल्की सी भी आशा रखी थी तो वह ध्वस्त हो जाएगी, चरमरा जाएगी, टूट जाएगी॥ जिसने आशा ही समाप्त कर दी उसने अपने आप को केवल लक्ष्य माना, इष्ट माना और कुछ माना ही नहीं॥ हार और जीत से ऊपर उठकर के जो संघर्ष करता है उसे 'निराशी' कहते हैं॥

निराशी का तात्पर्य यहाँ 'हतोत्साहित dissuaded' नहीं है निराशी का तात्पर्य यहाँ है जो हार और जीत से ऊपर उठ जाए॥ न उसे हार से कुछ न उसे जीत से कुछ, उसे तो बस संघर्ष में अनवरत continuously engaged उसमें होकर चलना है॥ क्योंकि डिगाने के लिए आशा निराशा, हार-जीत, "अरे हार गए! बस अब नहीं होगा"; "अरे जीत गए! ध्यान फिर भटक जाएगा", पार्टी होगी॥ जो न हार को हार माने, न जीत को जीत, उसे कहा निराशी॥ हार और जीत से ऊपर उठकर के जीने वालों ने अपने जीवन के संग्राम में बड़ी-बड़ी उपलब्धियाँ प्राप्त की है॥ जो हार और जीत के चक्कर में पड़ गए वे कभी भी छिटक सकते हैं कभी भी अपने मार्ग से हट सकते हैं॥ उसके लिए कोई मुहुर्त्त नहीं कब हटेंगे कब छिटकेंगे, कभी भी छिटक सकते हैं कभी भी हट सकते हैं॥ कोई भी तर्क वितर्क कुतर्क आकर के उन्हें छिटका सकता है॥ जिन्होंने भी जीवन में बड़ी-बड़ी उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं उन्होंने तभी प्राप्त की जब वे हार और जीत, आशा निराशा से ऊपर उठे॥ आशा निराशा से ऊपर उठने वाले भाव को एक शब्द दिया जाए तो वह 'निराशी' है॥ कोई आशा नहीं बची किसी प्रकार की, न आशा बची न निराशा बची इसीलिए शब्द 'निराशी' दे दिया, भाव दे दिया '0 point'. मुझे तो बस करते रहना है, अपने तप में रहना है॥ संकल्प लिया, (उदाहरण दे रहा हूँ) अणुव्रत लिया कि मुझे आज से मीठा नहीं खाना, आज ही व्रत लिया, आज ही टूट गया, कल फिर शुरु होगा॥

किसी ने शेर कहा था कि रोज सुबह बोतल तोड़कर संकल्प लेते हैं कि आज से नहीं पिएँगे और शाम को वो बोतल से ही संकल्प को तोड़ते हैं॥ पर यह अधूरा भाव है, पूरा तो यह है कि जिसने यह रोज करना शुरु कर दिया उसकी छूट भी जाएगी॥ इसलिए क्योंकि अब वह उस भाव में ही जिएगा, कचोटेगा अपने आप को॥ जिसमें यह भाव आ गया कि मैं सफल नहीं हो पा रहा हूँ मेरे प्रयास भले ही सफल नहीं हो रहे पर मैं करता रहूँगा मैं करती रहूँगी॥

उसे अब पृथ्वी पर परास्त करने वाली शक्ति नहीं बची॥ कयोंकि उसमें अब संकल्प 'शिव रूप' हो गया॥ जब संकल्प 'शिव रूप' हो जाता है, व्यक्ति हार और जीत से ऊपर उठ जाता है; तो हजार असफलताओं में भी फिर प्रयास के लिए तैयार होता है उसे कौन हरा सकेगा? वह शिव रूप हो गया, वह तो केशव की वाणी का अनुसरण कर रहा है॥ वह निराशी भाव में चला गया, निराशी भाव अर्थात आशा निराशा से ऊपर, निराशी भाव अर्थात हार जीत से ऊपर॥ यहाँ निराशी भाव का मर्म गहरे से जान लो, केवल हतोत्साहित होना हारकर बैठ जाना, discouraged dissuaded यह भाव नहीं है॥ शब्दों को दोहरा रहा हूँ कहीं गलत मर्म न पकड़ना॥ निराशी का तात्पर्य है हार जीत से ऊपर॥ जिस किसी ने भी किया उसने फिर यह नहीं सोचा क्या मिलेगा क्या नहीं मिलेगा, क्या बनेगा क्या नहीं बनेगा॥ मैं ही अब अपना उद्देश्य अपना इष्ट हूँ मुझे ऐसे ही अब जीना है॥ मैं one way ticket पर हूँ, मेरे लिए अब कोई अन्य मार्ग नहीं है॥ जो इस प्रकार चल निकलता है, हजार असफलताएँ भी वास्तविकता में उसे सफल ही कर रही होती हैं॥ क्योंकि प्रतिपल प्रत्येक असफलता उसमें एक बल जोड़ती चली जाती है॥ Every failure enables him or her to now counter the next endeavor. अगले प्रयास को फिर चुनौती के साथ सामना करने के लिए वह तैयार है॥ कौन? जो हार जीत से ऊपर उठ गया, कौन? जो आशा निराशा से ऊपर उठ गया, कौन? वह जिसे 'निराशी' भाव से सम्बोधित किया गया॥

यदि इस स्वरूप में तुम चले गए साधक, योगी भाव में चले गए तो उसके बाद हराने वाली शक्ति पृथ्वी पर नहीं है क्योंकि तुम शिव रूप हो चुके हो॥ तुम इष्ट हो चुके हो, तुम्हारा उद्देश्य इष्ट रूप तुम में अब प्राण प्रतिष्ठित हो गया है, जी रहे हो उसे॥ अब कौन हरा पाएगा तुम्हें? कोई नहीं॥ इस भाव से जो भी जीवन में संकल्प लेगा, वह गिनती करना छोड़ देगा मैं कितनी बार गिरा॥ वह केवल एक ही बात जानेगा 'मैं उठा', हजार बार गिरा, फिर उठा, दस हजार बार, एक लाख बार गिरा, तो भी उठा॥ क्यों? क्योंकि मैं हार और जीत से ऊपर हूँ, अब मुझे करते चले जाना है॥ ऐसा जीव जिसमें शिव संकल्प की ज्योति प्रचण्ड हो गई अब उसे हराया नहीं जा सकता॥ इच्छाएँ किसी की पूरी नहीं होती , संकल्प किसी के अधूरे नहीं रहते॥ इच्छा से संकल्प फिर चमत्कार पुस्तक में यही भाव दिया था॥ इसीलिए निराशी का मर्म जानते हुए अपना संकल्प लेना॥ जब भी कोई संकल्प लो तो निराशी भाव में ही लेना॥ निराशी कौन होता है मैंने समझा दिया वह नहीं जिसे तुम सामान्यत: समझते हो हारा हुआ परास्त, नहीं॥ आशा निराशा से ऊपर, हार जीत से ऊपर, वह निराशी॥

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