आवरण शक्ति का भ्र्म आत्मा का बोध नहीं होने देता , शंकराचार्य द्वारा रचित आत्म बोध श्-26

आवरण शक्ति का भ्र्म आत्मा का बोध नहीं होने देता , शंकराचार्य द्वारा रचित आत्म बोध श्-26

ब्रह्म मुहूर्त ध्यान उपरांत सत्संग.. आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा रचित आत्मबोध श्लोक नंबर 25..

आत्मनः सत चित अंशः च बुद्धेः र्वृत्तिः इति द्वयम् (दो), संयोज्य (संयोग)च अविवेकेन जानामि (जानना-अपना अस्तित्व बोध) इति प्रवर्तते (इसी प्रकार सक्रिय रहता है) - 25

यह श्लोक अपने आप में पूरा वाङ्गमय है। पूरा विस्तार पर इसे समिति से शब्दों में लेकर आगे बढ़ना है।

आत्मा अजन्मा अविनाशी ईश्वर का अंश व्याप्त यह सब कुछ... फिर मै विचार करूँ...मुझे इसका बोध क्यों नहीं हो पा रहा? मै क्यों नहीं जान पा रहा। क्या है ये.?. ब्रह्म ऋषि कहते हैं आत्मा के 2 गुण है,एक सत् चित्. सत् माने केवल वही है बाकी जो कुछ है वह मिथ्या है। आज है कल नहीं है। परिवर्तन के अंतर्गत है। दूसरा वो चैतन्य है, चेतना रूप है। वही है जो गति है बाकी सब कुछ उसी से गति प्राप्त करता है। यह उसके 2 गुण है और बुद्धि का भी 1 गुण है, क्या?..वृत्ति अर्थात तरंगें पैदा करना… लहरें पैदा करना,विचारों की, कल्पनाओं की, कामनाओं की यहां बुद्धि को एक प्रकार से अंतःकरण का एक प्रतीक माना गया है, मन बुद्धि चित्त सब इसमें आ गये। जो कुछ भी भीतर होता है चित् मंडल में वो सारा का सारा यहां बुद्धि के वृति के रूप में जाना गया है। यह दोनों जब मिल जाते हैं,तब उस अविवेक का जन्म होता है,अज्ञानता का जन्म होता है। कौन सी ज्ञान का जिससे अभी हम वर्तमान में जान रहे हैं कि ये मैं हूं यह मैं हूं.... और इसी प्रकार सक्रिय रहता है,चलता रहता है। यही इसका सौंदर्य है. यह मैं हूं.. यह कुछ नहीं केवल और केवल.. कहने को कुछ नहीं पर जन्मों की यात्रा से ही कुछ नहीं की गुथी खुलती है। ये आत्मा के प्रकाश, उसके अस्तित्व और बुद्धि के लहरों का संयोग है। मुझे इसका एक उदाहरण यहां दिखाई देता है....

हमारे एक कमरे में सीधा सूर्य नहीं आता, सूर्य शाम के समय अस्त होने से एक घंटा पूर्व.. हमारे दाई तरफ जो मकान है जो हमारी आगे की तरफ है उसकी खिड़की पर सूर्य सीधा पड़ता है उसकी खिड़की पर सूर्य पड़ने से उसका रिफ्लेक्शन उसकी छवि वो आ करके हमारे कमरे में आ जाती है और पूरी धूप खिल जाती है कमरे मे ऐसा लगता है जैसे सूर्य प्रचंड रूप से हमारे ही कमरे में है। विचार करें तो वो सूर्य हमारे कमरे में नहीं है। पूरा तेज दिखाई देता है,जहां जहां खिड़की का विस्तार आ करके वो एक आभा लाता है...रिफ्लेक्शन उतने क्षेत्र का पूरा कमरा अलोकित हो जाता है। बाकी को भी प्रभाव पड़ता है पर उतना तो आप धूप सेक लीजिये और वो आता कहा से है.. सामने वाले घर के शीशे से.. सूर्य किसी और दिशा मे... सूर्य एक दिशा मे, शीशा दूसरे दिशा,मे हमारा कमरा तीसरे दिशा मे...पर सूर्य का प्रकाश आ रहा है... ज़ब कभी भी वो खिड़की खोल लेते है.. जहाँ से reflection आता है तो हमारे कमरे मे शाम के समय प्रकाश नहीं आता क्यो की खिड़की खोली reflection बदल गया , फिर प्रकाश की दिशा भी बदल गईं...

कुछ इसी प्रकार का अनुभव इस श्लोक के द्वारा भी समझाया गया है,. मूल तो सूर्य है. आत्मा जिसके दो गुण है...without any dispute सत माने वही है और कुछ नहीं है सूर्य ही है और कुछ नहीं है... सूर्य ही प्रकाश है, वही चेतना है.. आत्मा ही चेतना है... बुद्धि रूपी प्रवृत्ति के संयोग से हमारे सामने वाले घर की खिड़की के संयोग से एक प्रतीति जन्म लेती है हमारे यहां.. ये धूप से खिली है हमारे यहां.. ये प्रकाश आया है हमारे यहाँ.. आया कहाँ से?.. है किसका.?.. संयोग दोनों का हुआ.. खिड़की हिल जाये तो भी सूर्य नहीं आएगा... सूर्य आगे पीछे होता है तो भी धूप नहीं होती... तो हम किस पर आश्रित हैं? जिसे हम अपनी धूम मानते हैं.. जानानि.... जैसे हमारे कमरे में सूर्य की धूप आई वह किस पर आधारित है दो चीजों पर सूर्य पर,,उस कमरे की खिड़की पर...वो हिल जाती है तो सूर्य नहीं... सूर्य भी पीछे रह जाता है....तो सूर्य हमारे यहां नहीं। पर जब आता है तो हम नहीं जानते हैं कि हमारे यहां की धूप है,हमारे कमरे में सूर्य का प्रकाश है

कुछ ऐसा ही इस ईश्वर द्वारा रचित इस सृष्टि में रचा गया है,जैसे वर्तमान में हम मानते हैं कि यह मैं हूं.. मैं कन्हैया लाल, मै नत्थू लाल जो भी नाम है हमारा। ये मैं हूं यह मेरा चेहरा है यह मेरी समझ है यह मेरी memory यह मेरे सब कुछ ..वो दो का सहयोग है। दो का Fusion है। दो के द्वारा मिलकर रचा गया एक प्रपंच है। हालांकि प्रपंच एक अलग विषय है। पर मै केवल उसका प्रयोग कर रहे हैं।. एक connivance के लिए. एक षड्यंत्र के लिए एक मिलजुल करके संभावना संभावित करने के लिए। आत्मा का सत् स्वरूप और चैतन्य स्वरूप बुद्धि की लहरें इनका सहयोग जब होता है।...पर किस पर आधारित है कहां से आयी बुद्धि...आत्मा से ही तो आई। अगर वह प्रकाशित नहीं,, तो आगे कुछ भी नहीं है। और हम आत्म साक्षात्कार की यात्रा में कहां चल पड़े अब हम सूर्य की तरफ सीधे चल पड़े।

जिस कमरे में धूप ना आए और वह सामने वाले घर के खिड़की पर आधारित हो उसे सीधी धूप लेनी हो तो क्या करेगा वो छत पर जाएगा, या नीचे जाएगा कुछ यही हम कर रहे हैं। हम अपने भीतर के सूर्य की ओर लौट रहे हैं। क्योंकि बीच में हमने देखा है, कुछ deflect, reflect है। रिफ्लेक्शन खत्म करनी है। सीधा सूर्य चाहिए। सूर्य ही होने का मन है। आत्मबोध और आत्म साक्षात्कार सूर्य हो जाने का ही एक उद्देश्य है। एक यात्रा है। आदि गुरु ने बहुत सुंदर रूप में कहा है इसका उस पर बहुत हो सकता है, पर यहां आज इस श्लोक में वर्तमान स्तर पर केवल इतना ही।

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