अभयम - भाव की सामर्थ्य

अभयम - भाव की सामर्थ्य
(आज का लेख साधक सुजाता केलकर द्वारा ट्रांसक्रिप्शन )

आशंका भय के साथ गुँथी है... मनुष्य की रचनात्मक ऊर्जा का क्षय आशंका,भय की बलि चढ़ जाती है... उसकी निर्णय लेने की क्षमता बचती नहीं तथा उसके  सजगता रूपी सम्पदा को बिखेर देती है... उसे एक स्थान पर बटोरा नहीं रहने देती..कहाँ का कहाँ ले जाती  है. अगर अपने ही कर्मो से ऐसे कारण उपस्थित किये की उसे भय आशंका हो तो भय होना संम्भव है .. परन्तु अकारण का भय, आशंका!.. इससे वो आगे नहीं बढ़ पाता .

अथर्व वेद का एक मंत्र है... जिसमे कहा है आगे और पीछे के दोनों भय समाप्त हो... केवल दिशा से नहीं उसे उन्होंने अंतरिक्ष कहाँ है... यहां मनुष्य के अतीत और भविष्य के जीवन तथा अपने निकटवर्तियों  के जीवन के बारे मे कहाँ है. मनुष्य समस्या वहाँ करता है,जहाँ वो अपने आप को कर्ता मान लेता है. कर्ता मान लेनेसे समस्या आती है. जो कुछ वो कर सकता है उसमें अपना योगदान नहीं दे पाता पर भय आशंका ओढ़ लेता है.

दो बाते मनुष्य को ध्यान से समझनी चाहिए... जिम्मेवारी लेनी है परन्तु कर्ता भाव मे नहीं .. क्यों की कर्ता भाव को संभालना अभी तुम्हारे बस का नहीं... कर्ता भाव मे जाते ही, क्या करने योग्य है उससे कहीं अधिक मनुष्य भय औऱ आशंका मे चले जाता है... इसलिए ईश्वर के तेज पर सब समर्पित करते हुए आपना सर्वस्व झोक दो... पर समस्या यही है.. मनुष्य कर्तापन मे, पूर्ण अहंकार या फिर पूर्ण भय आशंका मे कर्म करता है .. या इसके विपरीत समर्पण करता है तो  सब छोड़ देता  है अपने हिस्से का भी कर्म करना छोड़ देता  है... बीच का रास्ता नहीं अपनाता... मध्यम मार्ग प्रतिपदा,.. चलना बीच मे है जहाँ हमें ना तो अपने हिस्से की जिम्मेवारी छोड़नी है और नं ही उतना कर्ता बनना है, जिससे अहंकार बढ़े. इसका दुष्परिणाम मनुष्य के निर्णय लेने की क्षमता पर पड़ता है. जीवन के छोटे छोटे निर्णय लेने के लिए भी वो सक्षम नहीं रहता.

अभयम चाहिए, आशंका मुक्ति चाहिए, अन्यथा निर्णय के साथ साथ सबसे बड़ा दुष्परिणाम अपने  स्वास्थ पर होता है.... मनुष्य के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले जितने भी दुष्परिणाम किसी भाव से आएंगे, उनमे 70 से 80 % के बिच मनुष्य के रोगों का कारण भय और आशंका है... वही उनके और ईश्वर के बिच का सम्बन्ध बनता जा रहा है. ये भय का भाव सबसे बड़ा भूत  है और  इससे  मुक्त जीव को स्वयं होना  है. यु तो अस्ति भाव दृढ, अपने इष्ट के प्रति समर्पण हो तो भय से दूर होना कठिन नहीं...

भय और आशंका हमारी रचनात्मक ऊर्जा को खींच ले लेती है... उसीके कारण इतने व्यापार पल्ल्वीत हो रहे है... मनुष्य अपने रोग प्रतिरोधक क्षमता को स्वयं खत्म कर रहा है.... इसलिए इससे मुक्त होकर ही मनुष्य आगे बढ़ सकता है.... अपने लिए योग्य निर्णय भी ले सकता है... अभयम का भाव बोहोत महत्वपूर्ण है...ईश्वर का अस्ति भाव मनुष्य को अनावश्यक भय आशंका से मुक्त करता है... डरके जीना, डरके मरना तो डर ही भगवान हो जायगा...

उपनिषद का यही एक सन्देश है.. निर्भय हो जाओ.. पृथ्वी प्रतिपल नये आकाश को चूमती है.. पहले कुछ ऐसा हुआ आवश्यक नहीं ऐसाही पुनः  होगा.... उस भय के कारण अपने को त्रस्त कर देना योग्य नहीं... भाव की समर्थ तब तक हस्तगत नहीं होंगी ज़बतक भय नहीं जायेगा...उस पल का आनंद जीने का कुछ और है जहाँ भय आशंका नहीं है...

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