श्रीमद्भागवत गीता में एक उल्लेख आया है विविक्तदेशे सेवित्वम । यह उल्लेख श्रीमद भगवद गीता में अन्तर्मुखी होने हेतु निर्देशित किया गया है। पहला शब्द है विविक्त , दूसरा शब्द है देश और सेवित्वम। विविक्त देश, इस शब्द का मर्म आदि गुरु शंकराचार्य जी ने बताया, अपने आप को ऐसे क्षेत्र में उपस्थित करो जहां तुम अकेले हो। एक अकेला कोना जहां कोई बाहरी हस्तक्षेप नहीं हो। बाहरी हस्तक्षेप का किसी प्रकार का भी स्वरूप वहां नहीं होगा। जहां तुम केवल अपने भीतर के हस्तक्षेप को सहेजने में चेष्टा करो। भीतर उत्पन्न होने वाली अस्थिरता ही साधक के लिए सबसे बड़ा हस्तक्षेप है। प्रतिपल भीतर उत्पन्न होने वाली कुछ ना कुछ गतिविधि, आंतरिक अस्थिरता, आंतरिक ज्वार भाटे, जिनका कोई अर्थ ही नहीं होता है। साधक को पहले बाहरी हस्तक्षेप से स्वयं को मुक्त करवाना है। बाहरी हस्तक्षेप से मुक्त हुए बिना मनुष्य अपने भीतर के उत्पन्न होने वाले इन समूचे व्यतिरेक से मुक्त नहीं हो सकता।
बहिर्मुखी चित्त इन्हीं में उलझता रहता है। लोकाचार की इसलिए विवेक औपचारिकता, कौन कैसे चलता है, कौन कैसे बोलता है, कौन क्या - क्या कमा गया है, किसने किसको क्या कह दिया इत्यादि। श्लोक की इसी पंक्ति का अगला शब्द है “जनसंसदिअरतिः “. अर्थात अपने आप को अन्य लोगों के बहरी सम्पर्क - संसर्ग से मुक्त करा दें। अरतिः शब्द रति से उल्टा है। अंग्रेजी में इसके विलोम को कहेंगे mingle अर्थात मिलना जुलना और इसका उल्ट हो गया अरतिः अर्थात अलग हो जाना। उदासीन भाव की एक प्रकार से स्थापना। उदासीन अखाड़े की स्थापना ब्रह्मर्षि श्रीचंद महाराज जी ने की थी जो नानक जी के पुत्र थे, उन्होंने इसकी स्थापना की थी। उदासीन शब्द का यहां तातपर्य अंग्रेजी का sadness नहीं है अपितु अंतर्मुखी होना है अर्थात बाहर कोई विषय जब रुचिकर और आकर्षित नहीं करे। और जनसंसदि भी बताया गया, लोगों से मिलना जुलना।
श्लोक का मर्म साधक को अपने भीतर एक साधनात्मक हस्तक्षेप हेतु निर्देशित जिसका तात्पर्य है ‘सारे बाहरी विषयों को सारे बाहरी आयामों को जो मनुष्य को उलझाने की और अपने आप में समेटने की चेष्टा करते हैं उन सभी से स्वयं को मुक्त करवाना ही जनसंसदि अरतिः है। विविक्तदेशे सेवित्वम जनसंसदि अरतिः। अर्थात साधक के पास अपना एक अकेला होना परम आवश्यक है। उस एक अकेले कोने में तुम कुछ समय अपने आप के साथ रहो। अपने आप को जानो और अपने आप को समझ सको। अन्तर्मुखी हो जाने की यात्रा में यह परम आवश्यक है। बल्कि यह एक प्राथमिक आवश्यकता है, जिसकी पूर्ति के बिना तुम अपने भीतर अंतर जगत की यात्रा में आगे नहीं बढ़ सकते। साधक की कोई भी चेष्टा जो भीतर के जगत की ओर है, वह आगे विकसित नहीं हो पाएगी। इसलिए परम आवश्यक है की एक सुरक्षित स्थान को प्राप्त हो जाओ।
आध्यात्मिक दृष्टि से सबसे संपन्न व्यक्ति कौन होता है? वह जो अपने लिए अपने हिस्से का एक अकेला कोना और अपने आपको जुटा सकता है। और सबसे गरीब कौन है? जिसके पास 50 बैडरूम का घर है पर उसके पास वह अवसर नहीं कि एक अकेला कोना और एक हो कर अपने आप को जुटा सके। यह बात बहुत गहरी है, यह बात आदि गुरु मुनि वेदव्यास जी के माध्यम से आदि गुरु शंकराचार्य जी के द्वारा विवेचना प्राप्त “विविक्तदेशे सेवित्वम जनसंसदि अरतिः” को सिद्ध कर जब हम ध्यान में उतरते हैं तो हम एक प्रकार से विवक्ति देशे और जनसंसदि अरतिः ही होते हैं। हम जन समूह से दूर,बाहर के जितने भी उलझाने वाले विषय उनसे पीछे हट चुके होते हैं। अन्तर्मुखी हो हमे जो आत्मदर्शन एवं आत्म अवलोकन अरतिः हुए बिना, यह साधना आगे कैसे बढ़ेगी।
इस आत्मावलोकन और आत्मदर्शन हेतु साधक अगर चाहें तो ध्यान के उपरांत भी बैठ सकते हैं। ध्यान के उपरांत बहुत से लोग सोना चाहते हैं, वह भी बहुत अच्छी बात है। ध्यान के उपरांत की गहरी निद्रा पूरी रात्रि की निद्रा से भी ऊपर है। अतः आत्मावलोकन और आत्मदर्शन हेतु अगर आप चाहो तो साधक सांय काल में भी इसके लिए बैठ सकते हैं। और अपने स्वाध्याय सत्संग अर्थात स्वयं का अध्ययन एवं परिष्कार हेतु मनन कर सकते हैं।
आरम्भ में ध्यान का सबसे बड़ा लाभ है आंतरिक स्थिरता और शांति की प्राप्ति जिससे साधक अपने भीतर सब कुछ देख सके। आंतरिक स्थिरता के प्रभाव से साधक अपने भीतर के उत्पाती तत्त्वों को, अंतर्जगत के विद्रोहियों को देख सकता है, उन्हें संभालता है और सकारात्मक शक्तियों को सबल करता जाता है।
हे साधक इसलिए परम् आवश्यक है की कैसे भी करो, किसी प्रकार से भी जुटाओ अब वह तुम्हारा ही दायित्व है, पर एक अकेला और एक तुम की व्यवस्था नित्य प्रति करो। इसके बिना आध्यात्मिक उत्कर्ष की यात्रा अधूरी है पूर्ण नहीं है, समझे बाबू। विविक्तदेशे सेवित्वम जनसंसदि अरतिः