सुख और सुविधा का भेद

सुख और सुविधा का भेद

सुख और सुविधा का भेद यह लेख श्लोक के शब्दों के अतिरिक्त भाव सहित रचा गया है।

ब्रह्मऋषि याज्ञवल्क्य सन्यास में प्रवेश करने को तत्पर हैं। मैत्रेयी से कहते हैं कि मैं संन्यास लेने वाला हूँ, सोचता हूं कि तुम दोनों में अपनी संपत्ति बाट दूं। यह वाक्य वह मैत्रेयी और कात्यायनी को कहते है की तुम्हारा जीवन सुख से बीते इसलिए यह संपत्ति का बटवारा करने का निर्णय लिया है।

यह सुनकर मैत्रेयी कहती है कि इतनी संपदा से तो मुझे पूर्ण सुख प्राप्त हो जाएगा। याज्ञवल्क्य कहते हैं मैत्रेयी संपत्ति से सुविधाएं मिलेगी सुख नहीं मिलेगा। निःसंदेह शरीर को सुविधाएं चाहिए उसके बिना शरीर नहीं चल पाता। पर सुख!... मैत्रेयी के मन में जिज्ञासा हुई, क्या सुविधाएं मिल गई तो सुख और है क्या? सामान्यत: इसी को तो सुख मानते हैं। वही बहुत सुखी है जिसके पास बहुत सारी सुविधाऐं होंगी।

सुख और सुविधा का भेद तब जन्म लेता है, विशेषकर तब जब यां तो पूर्वजन्म के योग परक संस्कार जीव ले कर साथ आया हो। ऐसा होने से फिर तो बड़ी जल्दी अपने आप ये पता हो जाता है की सुविधा और सुख में भेद क्या है? अन्यथा सुख और सुविधा का भेद तब जन्म लेता है जब मनुष्य के पास सुविधाओं की कमी ही नहीं हो। उसके पास अपार धनसंपदा हो फिर भी वह कहे कि समथिंग मिसिंग… कुछ छूट रहा है… जो कुछ भी चाहो वह 1 मिनट में सामने हाजिर कर सकने की क्षमता से पूरित जीव। जो कुछ भी चाहिए वह मिलेगा वाली अवस्था ...पर जीव फिर भी कहे कुछ की छूट रहा है। तब पता लगता है कि सुविधा और सुख भिन्न हैं।

याज्ञवल्क्य ने उत्तर देकर समझाने की चेष्टा की और वह नाना विविध सुविधाऐं, नाना प्रकार के विषयों का उल्लेख करते हैं। अलग-अलग विषयों का नाम लेकर चाहे वह धनसम्पत्ति हो, प्रॉपर्टी हो, सोना, संबंध पुत्र इत्यादि वह दोनों में भेद समझने हेतु एक संकेत देते हैं ...

सुख अंत में प्राप्त किसको होता है? कभी ध्यान से मनन करें, तो पता लगेगा की बाहर के समस्त साधन केवल जुटते हैं… चूँकि हमें वह भ्रम है कि यह साधन हमें सुख देंगे, पर सुख तो वस्तुतः चैतन्य का विषय है। चेतना का विषय है। जड़ पदार्थ उसमें क्या पूर्ति कर सकता है? वह सुख की पूर्ति नहीं कर सकता। चैतन्य की पूर्ति जड़ नहीं कर सकता वह संभव ही नहीं है। अगर चैतन्य की पूर्ति जड़ कर सके तो एक ही गाड़ी में बैठ कर के जो सुख अर्थात तथाकथित सुख अनुभव एक समय हुआ हो तो दूसरे समय मनःस्थिति खराब होने पर वह गाड़ी देखने का मन नहीं होता है। तो सुख कहां रहा फिर? सुख गाड़ी में ना था।

चूँकि, मनःस्थिति ठीक नहीं है तो उसी गाड़ी मे बैठना और चलाने का मन ही नहीं कर रहा। पदार्थ तो यथावत है, सब कुछ ठीक है बिगड़ क्या गया! सुख प्राप्त करने वाला बिगड़ गया। उसकी स्थिति अभी असंतुलित है। तो सुख कहाँ था फिर, सुख तो चैतन्यता का विषय है, वह जड़ में नहीं है। जड़ के भ्रम से जीव ढूंढता सुख को पदार्थ में ही है, अथवा यह कहें की जीव भ्रम के वश सुख को अनित्य वस्तु में खोजता है।

इसे एक आध्यात्मिक साधक ही समझ सकता है बाकी अभी नहीं समझ सकेंगे। बाकी को समझाना अभी आवश्यक भी नहीं है। अन्य अटक के रह जाएंगे और धारणा पर ही आधारित रहेंगे।

यह भी एक बड़ा सत्य है कि सुविधाओं की जीवन में बहुत आवश्यकता है। इसे हम कभी भी नकार नहीं सकते। पर क्या यह सुख है? अगर विषय वस्तु से सुख मिलता भी है तो उसे फिर कौन लेता है? और कौन परिस्थिति बदलने पर उसी विषय में सुख नहीं ले पाटा है?

ब्रह्मऋषि का उल्लेख है कि सुख तो भीतर से ही उठ रहा है जिसकी खोज में जीव बाहर के पदार्थों से जोड़कर उसके पाने की चेष्टा करता है क्योंकि वह भ्रम है मैं है अभी, अन्यथा सुख तो स्व का विषय है भीतर का विषय है। योगियों को जो सुख भीतर से प्राप्त होना आरम्भ हो जाता है बाहर की सुविधा कम भी होती है बढ़ती है तो उनको आसती नहीं होती है, क्योंकि वह जान चुके हैं, की सुख चेतना का विषय है जड़ का नहीं है। जड़ सुविधा बन सकता है। बहुत महत्वपूर्ण है सुविधा और दुविधा भी, पर सुख अलग है यह या तो साधक समझ सकता है या फिर उसको जिसके पास अपार संपत्ति है, फिर भी कुछ अधूरा लग रहा है उसे अपने जीवन में । यह है सुख और सुविधा का भेद। ट्रांसक्रिप्शन सुजाता केलकर

   Copy article link to Share   



Other Articles / अन्य लेख