ब्रह्म मुहूर्त्त ध्यान उपरान्त सत्संग - आदिगुरू शंकराचार्य जी द्वारा रचित 'आत्मबोध' - श्लोक 7
माया का प्रभाव, आवरण का प्रभाव, आवरण शक्ति कल उल्लेख आया था न आवरण शक्ति का। बहुत बड़ा प्रभाव है आवरण शक्ति का, बहुत बड़ा प्रभाव है। आत्मा पर पाँच आवरण तो वह जीवात्मा बन जाती है और यही जीवात्मा जब शरीर में आती है तो नाम और रूप के नाम से पहचान बनाती है और जो कुछ भी नाम और रूप के नाम से दिखता है उसी में पूरी लीला चलती चली जाती है बोध भी नहीं हो पाता, कभी भी बोध नहीं हो पाता। आधारविहीन लगता है यह कहना कि दिखनी वाली सृष्टि माया है मिथ्या है। कोई कारण नहीं मिलता कहने का कि मेरे भीतर कोई जीवात्मा है और फिर आत्मा तो और भी पीछे है।
यह तो विज्ञान आधुनिक विज्ञान की कुछ खोज न हुई होती तो हम जान ही नहीं सकते थे (सामान्य व्यकति की बात कर रहा हूँ यहाँ सिद्धों का उल्लेख नहीं है), सामान्य व्यक्ति जान सकता था क्या कि यह दिखने वाली सृष्टि कुछ और है? नहीं, विज्ञान ने खोज न की होती तो क्या पता लगता कि हर पदार्थ का मूल atom परमाणु है हर atom का मूल कोई एक तरंग है wibration है क्या यह जाना जा सकता था?
हजारों वर्ष पूर्व हमारे यहाँ ऋषियों ने तो इसकी स्थापना बहुत पहले कर दी थी। हजारों वर्ष नहीं मैं लाखों या अनजाने काल कहूँगा। अनजाने काल से ऋषियों ने इसकी स्थापना कर दी थी कि सृष्टि माया आधारित है पर आधुनिक विज्ञान ने भी इतना तो जान लिया कि जो दिख रही है यह वह नहीं है। दिखने में कैसी है आदिगुरू शंकराचार्य जी कहते हैं दिखने में ठीक वैसी है जैसे सीप होती है मोती वाली Sea Shell मान लो वह चमक रहा हो चाँदी का बना हो, चाँदी के बने हुए भी आते हैं Sea Shell, तो मान लो कोई चाँदी का चमकता हुआ सीप है sea shell जिसमें मोती है सीप, मान लो कोई चाँदी सा चमकता हुआ कोई मोती वाला सीप है। यह सृष्टि बिलकुल वैसी दिखती है चमकती हुई सुन्दर अद्भुत सब दिखता है।
और यह तब तक रहता है जब तक अज्ञान का आवरण बना हुआ है जैसे ही अज्ञान का आवरण छँटा, वैसे ही इसका आधार इस पूरे संस्थान का, संस्थान मने समस्त सृष्टि का संस्थान जिसे अधिष्ठान कहा उन्होंने, वह एकदम से बिखर कर रह जाता है और बचता है केवल एक अद्वैत एक नित्य जो सबमें एक सा व्याप्त है। हाँ ये बातें सुनने में कुछ अलग सी लगती हैं पर मैंने बहुत से कार्यक्रमों में इसका उल्लेख गत अनेक वरषों से कहा है। कि यह बात quantaum physics के ानेक विज्ञानियों न अब माननी आरम्भ कर दी है। कि सृष्टि का आधार There is some unified field. एक unified field ही इसका आधार है उस एक ही अव्यक्त आधार से सारी सृष्टि बनी है जन्म ली है। यह बात कौन कहताहै? quantum physics. अब क्योंकि वह कहता है तो निश्चित रूप से हमारे ब्रह्म ऋषियों की बात को मनुष्य की संशयात्मक बुद्धि के समक्ष एक अनुमोदन मिल जाता है । यह ऋषि गलत नहीं कहता कि जो दिख रहा है चमक रहा है , सीप sea shell चाँदी का बना हुआ चमक रहा है यह वैसा है नहीं, चमक रहा है।
यह उन्होंने उपमा दी है उदाहरण दिया है सीप का चाँदी से बना, क्योंकि बाहर कितना चमक दमक है। आज भी किसमें उलझे हुए हैं लोग ? चमक दमक में। यह वैसा नहीं है। श्लोक में थोड़ा सा अध्ययन
तावत्सत्यं जगद्भाति
शुक्तिका (सीप) रजतं (चाँदी) यथा।
यावन न ज्ञायते ब्रह्म
सर्वाधिष्ठान अद्वयम् (अद्वैत) ।७।
तावत्सत्यं जगद्भाति - जब तक सत्य बाहर नहीं तब तक जगत की प्रतीति कैसी है?
शुक्तिका (सीप) रजतं (चाँदी) यथा - जैसे चाँदी बना हुआ सीप चमक रहा हो
यावन न ज्ञायते ब्रह्म - जब तक ब्रह्म का बोध नहीं होता
सर्वाधिष्ठान अद्वयम् - यह सारा रचा हुआ खेल एक ही अव्यक्त के द्वारा है अद्वैत के द्वारा है सब कुछ एक है अलग नहीं है भेद नहीं है
निरन्तर इन बातों को श्रवण अध्ययन ठीक उसी प्रकार है जैसे नेवला साँप से लड़ता है विष नहीं आ पाता। साँप डसता भी है तो विष का प्रभाव नहीं हो पाता, नेवला घास चाटता है। तो हम ऐसी विद्या रूपी घास चाट करके जीवन रूपी संग्राम में रहते हैं, जो हमारी बुद्धि को स्थिरता प्रदान करती है। जब बाहर का सारा भटकाव हमें भटकाएगा (मैं अपनी बात कर रहा हूँ हो सकता है तुम महायोगी हो, मैं सामान्य व्यक्ति। भटकाता है), पर कम से कम इन बातों का स्मरण करने से बुद्धि फिर से यथार्थ पर आती है। भले ही कुछ देर के लिए ही हो पर उत्कर्ष में आत्म उत्कर्ष में बहुत बड़ा सहायक पुट है। आत्म उत्कर्ष में यह बहुत बड़ी सहायता है कि नित्य प्रति सत्संग किसी न किसी रूप में जीवन में चलता रहना चाहिए। उस अमृत रूपी घास को चाटते रहने का अवसर मिलता रहना चाहिए