व्यवस्थित चिंतन विचारों की शक्ति का आधार है
सम्भवत: यह भाग 18 है॥ एक गहरी साधना के प्रशिक्षण पर हम आगे बढ़ रहे हैं॥ अपने भीतर के तप को हम किस प्रकार अडिग बनाएँ, दुष्प्रभावित न होने दें॥ हमारे भीतर की कोई दुर्बलता हमारे तप को डिगा न सके, हमारे संकल्प से हमें हटा न सके और हम अपने संयम अपने तप के द्वारा अपने भीतर के मुख्य दुर्योधन को परास्त कर सकें, जो रह-रहकर हमारे चिंतन में खलबली मचाता है न शान्त होने देता है न स्थिर, न ही हमारे निर्णय उस स्वरूप में उत्कृष्ट हो पाते हैं॥ अत: तप अडिग हो unaffected, without any impact, इसके लिए श्रीमद भगवद गीता के अध्याय 3 का श्लोक 30, हमने 3 सूत्र वहाँ से लिए और उनके 3 भाग बनाए - 'निराशी, निर्मम, विगत ज्वरा'॥
हम निर्मम के अध्ययन पर हैं॥ यदि संस्कृत भाषा के इस शब्द 'निर्मम' के भाव को, तथा इसके अनेक मर्म अनुभव करने की चेष्टा करें तो एक भाव है अनासक्ति disconnect, बिलकुल अनासक्त हो जाना॥ अनासक्त होकर के अपने आप को सँभालना, अपने भीतर ही एक ऐसी निर्ममता का परिचय देना जहाँ हम अपने पुराने अभ्यासों के प्रति आसक्त नहीं हैं, अपने भीतर के असुरों की आसक्ति में नहीं हैं, हम अपने संस्कारों की आसक्ति में नहीं हैं, वे संस्कार जो बाधा बनते हैं॥ यहाँ हनुमान का वह प्रशिक्षण याद रखना Anti-biotics में और सूत्र हनुमान में एक अन्तर है॥ एन्टीबायोटिक्स यह नहीं देखते कि शरीर में अच्छे कीटाणु कौन से हैं और बुरे कौन से हैं, वे भेद नहीं करते॥ वह पूरी की पूरी लंका जला देते हैं॥ पर हनुमान ऐसा नहीं करते, वे किसके दूत हैं? मर्यादित के॥ जो पौरुष तो कर रहा है पर है मर्यादित, उसके दूत हैं॥ इसीलिए वह लंका जलाते हैं, भस्म करने की चेष्टा में हैं पर उन्हें पता है कि मेरे द्वारा फैलाई गई इस अग्नि में इस दावानल में इस जंगल की आग की तरह जो मैंने लगा दिया, इसमें वह घर प्रभावित नहीं होगा, जहाँ राम लिखा है॥ जहाँ राम के नाम की पताका है वह घर प्रभावित नहीं होगा॥ इसी को कहते हैं पौरुष तो है पर मर्यादित है, मर्यादा पुरुषोत्तम यूँ ही नहीं कहा गया॥ उनके दूत के भी पौरुष की मर्यादा देखिए कि एण्टीबायोटिक्स की तरह सब कीटाणु नहीं मार डाले, उनको छोड़ दिया उन जीवाणुओं को छोड़ दिया जो शरीर के स्वास्थ्य के लिए सन्तुलित हैं एण्टीबायोटिक नहीं छोड़ पाता॥ ऐसे में जब हम निर्मम भाव को लेकर भीतर चलें तो हमारे भीतर भी हनुमान होने चाहिए॥ अर्जुन के रथ पर पताका में हनुमान का मर्म भी इसी प्रशिक्षण की श्रृंखला में आया है॥
हनुमान न केवल प्रतीक हैं प्राण का, शक्ति का, साहस का, पराक्रम का अपितु साथ ही साथ उस बुद्धि, उस विवेक का, मर्यादा का, जिसे ज्ञात है कि यदि मैं नष्ट करने के लिए चल पड़ा तो मुझे किसे नष्ट करना है और किसे सुरक्षित रखना है॥ यह नहीं कि random firing चल रही है और उस Cross Firing में कोई भी आ गया॥ न, बिलकुल नहीं, पूर्ण नियन्त्रण, पूर्ण अधिकार में लेकर पुरुषार्थ; विध्वन्स भी है तो पूर्ण नियन्त्रित है, regulated in absolute sense. पूर्ण नियन्त्रित यदि वे आज विध्वन्स के लिए उतरे हैं तो उनका विध्वन्स विभीषण को आहत नहीं करेगा, केवल वह जिनका विध्वन्स करना है॥
यह बात हमें भी ध्यान रखनी है, निर्मम भाव का तात्पर्य यह नहीं होना चाहिए, कि साधक अनेकों बार, जब अपने भीतर साधना पर आरूढ़ होता है तो कई बार बहुत stubborn हठी उद्धण्ड हो जाता है, अध्यात्म में यह बहुत देखा जाता है॥ वह तपस्वी बनने के लिए निकलता है तप आरम्भ करता है अपने भीतर के शत्रुओं का दमन करना चाहता है अपने आप को बटोर कर अपने तप पर आरूढ़ होता है॥ उसका उद्देश्य क्या है? अपने भीतर की अराजकता को समाप्त करना, भीतर के शत्रुओं का दमन करना , भीतर के दुर्योधन का वध करना, यह उसका उद्देश्य है॥ पर साथ-साथ क्या होता है वह अपने उद्देश्य की पूर्त्ति के लिए जब भीतर कठोर होता है अपने प्रति अपने प्रति अपने प्रति (बार-बार दोहरा रहा हूँ), तो वह साथ-साथ उद्दण्ड भी हो जाता है stubborn हठी और उसका प्रभाव उसके आसपास के परिकर पर भी पड़ता है॥ वास्तविकता में तो वह अपने आप को आडे हाथों ले रहा है , निर्मम तो वह अपने प्रति है पर उसका निर्मम भाव जब नियन्त्रित नहीं हो, मर्यादित नहीं हो तो उसके 'निर्मम भाव' का प्रभाव उसके जीवन के अन्य पक्ष पर भी पड़ेगा और आसपास भी आएगा॥ वह नहीं देखेगा उस समय कि विभीषण का घर भी सुरक्षित है कि नहीं, वह उसे भी जला देगा
इसलिए बहुत से अध्यात्म पथ के साधक स्वभाव में कई बार बहुत उद्धण्डी, मूडी, कठोर भी हो जाते हैं॥ क्योंकि हनुमान उस समय भीतर जागृत नहीं होते, हनुमन्त भाव भीतर जागृत नहीं होता॥ हनुमन्त भाव Absolute Precision का है Even during the moments of raging a fire a war यहाँ तक कि जब अग्नि का प्रचण्ड प्रवाह प्रवाहित कर रहे हैं उस समय भी उनका absolute precision है, laser guided precision कि इसे बिलकुल नहीं छूना॥ अत: यह भाव यदि साधक को भीतर स्थापित करना आ जाए तो उसकी साधना में अपने प्रति कठोरता इतनी मर्यादित और सन्तुलित होगी कि उसकी कोई भी उद्धण्डता हठी प्रभाव बाहर नहीं जाएगा॥ जबकि सामान्यत: देखा गया है कि कई तपस्वी बहुत हठ वाले भी हो जाते हैं॥ मैं यहाँ उनका उल्लेख नहीं कर रहा जो ब्रह्म ऋषि हैं॥ कुछ ब्रह्म ऋषि तो लोगों को हटाने के लिए भी बुरा-भला कहना शुरु करते हैं वह एक अलग विषय है॥ वे नहीं चाहते कि लोग अधिक उनके पास आएँ पर लोग नहीं मानते॥ पर यहाँ बात हो रही है एक सामान्य साधक की, जो तप पर आरूढ़ होता है, 'अपने प्रति' कठोर होने की अपेक्षा 'सबके प्रति' कठोर हो जाता है॥ अगर उसने तला हुआ नहीं खाने का संकल्प लिया तो हर खाने वाले को बोलेगा बस तुम अपनी ऐसी तैसी कराते हो ये करते हो, वो करते हो, बोलता रहेगा॥ तो लोग फिर उसके स्वभाव के कारण उसके अध्यात्म से भी पीछे हो जाते हैं॥ "क्या ऐसा होता है अध्यात्म में? मनुष्य को कैसा बना देता है यह तो काटता है हर समय"॥ इसलिए निर्मम भाव अनासक्ति का है और ऐसी अनासक्ति जिसमें हनुमन्त भाव परस्पर साथ हो जो भीतर बुरे संस्कारों को भस्म करना चाहता है तो उसमें अच्छे संस्कार भस्म न हों॥ यह एन्टीबायोटिक का प्रभाव नहीं है कि सब मारो बाद में दही खाकर ठीक करेंगे॥
बहुत विवेक के साथ, कि मुझे कौन से संस्कार को मारते समय अपने भीतर इतनी अग्नि उत्पन्न नहीं करनी कि मेरी सौम्यता, मेरी मधुरता, मेरा समर्पण भी भस्म हो जाए॥ हालांकि निर्मम भाव में यह पक्ष pecuniary है दूर का है, फिर भी मैंने ले लिया इसलिए लिया क्योंकि इस भाव का अनुसरण नहीं करेंगे तो फिर कई बार अध्यात्म पथ के साधक बाहरी स्तर पर बहुत कठोर और कटु भी हो जाते हैं॥ जिससे लोग फिर उनसे कटते हैं, ऐसा नहीं होना चाहिए॥ तुमने भीतर के दुर्योधन का वध करना है हर एक को नहीं हाँकना॥ इसलिए निर्मम भाव के साथ हनुमन्त भाव भी चलना चाहिए॥ निर्मम भाव और हनुमन्त भाव इन दोनों का अनुसरण करने से अनुपालन करने से भीतर अवांछनीय unwanted undesired तो हटते हैं पर वे रह जाते हैं जिन्हें रहना चाहिए, जिन्हें हमने बल देना है nurture करना है nourish करना है पुष्ट करना है, वे रह जाते हैं॥
निर्मम भाव का ही एक भाव है अनासक्ति, अपने भीतर की अनासक्ति, अपने स्वभाव के प्रति अनासक्त होना जो बाधा बन रहा है, पर विवेक के द्वारा, अविवेकी होकर नहीं॥ निर्मम और हनुमन्त भाव इन्हें आज दिन भर सोचते रहना, विचारते रहना कि मुझे अपने भीतर की अराजकता के लिए निर्मम बनना है ऐसे सभी संस्कारों को काट देना है जो मेरे तप में बाधा बनते हैं पर साथ-साथ हनुमन्त भाव को जागृत रखना है कि विभीषण का घर नहीं जले॥ यह भाव तुम्हारे भीतर सतत चलना चाहिए॥