जैसे अस्थिर जल पर चन्द्र छितराता , शंकराचार्य द्वारा रचित आत्म बोध श् -22

जैसे अस्थिर जल पर चन्द्र छितराता , शंकराचार्य द्वारा रचित आत्म बोध श् -22

ब्रह्म मुहूर्त ध्यान उपरांत सतसंग आत्मबोध श्लोक नंबर 22...

अज्ञानात मानसो उपाधि कर्तृत्वादीनि (मन के कर्म क्रियाए आदि) च आत्मनि कल्प्यन्ते (आरोपण) अम्बुगते (जल पर प्रतिबिम्ब) चन्द्रे चलनादि (अस्थिरता-तरंग) यथा अम्भसः(जैसे जल में - 22

यह सुंदर भाव चंद्र से जुड़ा है। अज्ञानता के कारण मन रूपी उपाधि, उसके क्रियाएं विचार इत्यादि जो कुछ भी मन के द्वारा संभव है…वो सारे के सारे एक ऐसी आवरण शक्ति का निर्माण करते हैं, ऐसी माया की शक्ति की निर्माण करते हैं आत्मा दिखाई नहीं पड़ती, अपितु ऐसा प्रतीत होता है कि "मैं".." मैं "..उसी प्रकार हूं जैसे अस्थिर पानी में चंद्र का प्रकाश पड़ रहा हो चन्द्र की छवि पड़ रही हो तो वो भी छितराया हुआ दिखाई देगा। जिस प्रकार अस्थिर जल में चंद्र की छवि भी छितराई हुई दिखाई देगी। ठीक उसी प्रकार आत्मा अजन्मा, निर्लिप्त शाश्वत सनातन पर फिर भी उस पर आरोपित है। क्या आरोपित है? मन जैसे उपकरणों के आवरण (इसे मनोमय कोष का भी उल्लेख माना जा सकता है प्राणमय में कोष का भी उल्लेख माना जा सकता है)

मन के आक्षेप, चूंकि मन प्रतिपल कुछ ना कुछ करते जाता रहता है भले ही वो सतही मन हो अर्ध चेतन के स्वरूप में हो उसके द्वारा खड़ी की गई अस्थिरता हमारे अस्तित्व रूपी जल की सतह पर इतने घमासान उत्पन्न करती है की कोई भी छवि उसमें छितराई प्रतीत होती है। बिलकुल वैसे ही जैसे चंद्र पर चंद्र की छवि। आत्मा चंद्र की भांति आकाश में स्थिर है, शाश्वत है, सनातन है, शांत है,निर्लिप्त है,.. चन्द्र कुछ नहीं कर रहा है, पर जल पर उसकी छवि जल पर उत्पन्न होने वाली तरंगों के कारण अस्थिर है।

इसलिए इस श्लोक में उन्होंने कहा ...आज्ञानात मानसो उपाधि... उपाधि शब्द याद होगा जब हमने आत्मबोध आरम्भ किया था...तब उपाधियों. अर्थात आरोपण जितने भी है, मन रूपी उपाधि के कर्म उसका कार्य क्षेत्र, गतिविधि वह आत्मा पर उसी प्रकार से ही जैसे जल के प्रतिबिंब पर अस्थिर तरंगें उसे चन्द्र की छवि को टूटा, छितराया बिखराया हुआ सा दिखाते है। ठीक ऐसे ही आत्मा का अस्तित्व स्थिर होते हुए भी शाश्वत सनातन होते हुए भी अपनी प्रतीति ना दे करके मनुष्य समझता है कि मैं तो यही हूं आधा अधूरा औना पौना छितराया हुआ सा, ये भाव श्लोक के माध्यम से पुनः आत्मबोध के मूल मर्म की प्रतिष्ठा करते हुए आगे बढ़ रहा है। आत्मबोध के अंतर्गत आत्मा के उस स्वरूप को प्रतिष्ठित किया है जो निर्वाण षट्कम मे उन्होंने नेति-नेती के सिद्धांत से स्थापित किया... Not this.. Not this.. Not even this.. वो क्या है? चिदानंद रूपों शिवोहम शिवोहम... आत्मा शिवोहम है.. भाव यही आता है सिद्धों तो यही अनुभव किया है।

नचिकेता वाला उल्लेख बुद्धि को बार-बार स्मरण कराने से बुद्धि को बार-बार संस्कारित कराने से बुद्धि की प्राथमिकताओं में परिवर्तन आते हैं और फिर एक समय वह भी आता है जब जीव जुट करके आत्म साक्षात्कार के लिए आगे बढ़ता है जिन लोगों ने भी मैंने नहीं,, मै अपनी बात नहीं कर रहा हूं,, जिन लोगों ने अपना पूरा जीवन बिना किसी शिकायत के पूरी तरह आत्म साक्षात्कार को दे दिया। सेंकड़ो अभाव अपने ऊपर ले लिए, । कौन है वह? वो वह है जिन्होंने जन्मों तैयारी की और इस प्रकार के ज्ञान से बुद्धि को संस्कारित करते चले गए एक समय ऐसा आया कि बुद्धि ने सर्वोपरि प्राथमिकता साक्षात्कार को बना लिया और उसे कोई चीज जीवन में है या उसके पास नहीं है, अभाव है तो भी वह उसके ऊपर चले गए अभी वह केवल उस पर है जो सारी सीमाएं योग भ्रष्ट हो जाने की वो पार कर चुके। इसलिए इतने सारे श्लोकों में एक ही भाव आपको बार-बार दोहराया गया है, नित्य प्रति का शरीर का स्नान मन बुद्धि के स्नान से कम महत्वपूर्ण माना गया है। क्योंकि यह मन बुद्धि का स्नान गहरे अंतःकरण का स्नान है।

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