रजोगुण और तमोगुण मुझमें आज ही समाप्त तो - जानो

रजोगुण और तमोगुण मुझमें आज ही समाप्त तो - जानो

त्रिगुणात्मक प्रकृति का विषय लिखने में कितना सरल है। मनुष्य की प्रकृति को केवल तीन ही तो गुणों में बांट दिया गया।  किसी भी विज्ञान की अगर पराकाष्ठा के विषय पर जानना हो तो उसका सिद्धांत एक ही है, कि वह कितने सरल और सहज स्वरूप में जन सामान्य के समक्ष उपस्थित हो गया।  आज इस वर्तमान युग में मात्र उंगलियों के स्पर्श द्वारा ही हम जीवन के बहुत बड़े स्तर की गतिविधियों को चलाते हैं।  केवल एक उंगली के स्पर्श से सैकड़ों निर्देश (Command) दिए जाते हैं। जो सभी कुछ करने के लिए किसी काल में ना जाने क्या-क्या बटन दबाकर कुछ सम्भव  होता था वह आज एक उंगली के केवल स्पर्श मात्र से ही हो जाता हैं।  इसीलिए विचार करने पर यह बुद्धि विस्मय को प्राप्त होती है कि आयुर्वेद अथवा मनुष्य की मनःस्थिति को समझने और जानने का मनोविज्ञान विज्ञान हो।  इतना  सरलीकृत करके हमारे समक्ष हमारे प्राचीन भारतीय मनीषा के वैज्ञानिकों ने उपस्थित किया संपूर्ण Human Psychology को तीन भागों में बांट दिया गया। सत्व - रज - तम। और तीनों के साथ उन्होंने उनकी वृत्ति; वृत्त गोलाकार को भी कहते हैं, जिस चक्र में आप घूमने लगते हो और घूमते ही चले जाते हो, घूमते ही चले जाते हो।  जिस चक्र में आप घूमते हो वह कौन से गुण से प्रेरित है, उस वृत्ति के चक्र में घूमते चले जाने के  प्रभाव क्या है ? मनुष्य की सृष्टि (प्रकृति)गुण-कर्म प्रेरित है। गुण-कर्म जैसा होगा अर्थात जैसा गुण मनुष्य पर हावी होगा उसी के अनुरूप उससे प्रेरित उस मनुष्य के कर्म होंगे।  और जैसे उस मनुष्य के कर्म होंगें तदनरुप उसकी फलश्रुति होगी अर्थात परिणाम होगा। 


मनुष्य का आचरण, उसकी प्रकृति गुण-कर्म प्रेरित है।  जिसे ईश्वर ने रचित करके मनुष्य में उसे स्थापित किया है।  साधक इसलिए सतोगुण ,रजोगुण और तमोगुण का जीवन में प्रभाव को समझने हेतु एक सूक्ष्म दृष्टि चाहिए। अगर मनुष्य के भीतर की त्रिगुणात्मक प्रकृति को केवल मोटे  रूप तक ही समझने का प्रयास किया तो कुछ का कुछ अर्थ निकाल कर अर्थ का अनर्थ होने की सम्भावना बनी रहेगी। 


अध्यात्म पथ पर साधक अक्सर यह सुनते रहते हैं की तमोगुण आवश्यक नहीं है, बिल्कुल आवश्यक नहीं है। एक साधक मनुष्य में उसका प्रभाव नहीं होना चाहिए, बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए। देखो साधक अब यहीं गंभीरता के साथ यह समझना होगा की तमोगुण की उपस्थिति जीवन में उतने अंशों रहना आवश्यक है, जिससे किस कार्य को कब अब विराम देना है वह संभव सम्भव हो सके।  तमोगुण का प्रभाव ही तो है जो रोकता है, ठहरने को विवश करता है। मनुष्य केवल भागता ही रहा तो विश्राम कहाँ और कैसे प्राप्त करेगा। उसी प्रकार अगर रजोगुण नहीं होगा, तो मनुष्य सक्रिय ही नहीं होगा, वह कुछ करने हेतु उठेगा ही नहीं, उसमें कोई संकल्प जागृत नहीं होगा। वह किसी संघर्ष के लिए आरूढ़ ही नहीं होगा। अतः मनुष्य के जीवन में रजोगुण भी चाहिए, तमोगुण भी चाहिए; पर कैसा ? ऐसा जो कि नियंत्रण में हो, जब चाहा तब उनका प्रभाव रोक दिया।  मान लीजिए किसी मनुष्य में केवल रजोगुण ही अत्यंत सक्रिय हो चला और नियंत्रित नहीं हो, तो वह मनुष्य को तनाव के अधीन विचलित करते हुए ले जाएगा। 


इन सभी गुणों की सूक्ष्मता को समझना होगा केवल मोटे मोटे रूप से नहीं देखना मोटे मोटे रूप से ही केवल देखने और समझने से हम अर्थ का अनर्थ कर जाएंगे। बहुत छोटे बच्चे को क्या पौष्टिक भोजन नहीं कराते ? छोटे बच्चे बच्चे को पौष्टिक भोजन कराते हैं। तो क्या उसे पौष्टिक भोजन कराते ही चले जाते हैं ? नहीं ऐसा नहीं करते।  छोटे बच्चे को एक सीमित सी मात्रा एक समय पर खिलाते हैं, और एक पूरी उसकी विधि है। छोटे बच्चे को केवल थोड़ा खिलाया उसके उपरांत उसकी पीठ पर हाथ फेरा। हजम होने का  डकार सुनी और पुनः खिलाया। फिर से पीठ पर हाथ फेरा और सुनी अब फिर से डकार और आगे फिर खिलाया। इसी प्रकार मर्यादित और संतुलित एवं नियंत्रित (Regulated) स्वरूप से इस प्रक्रिया को पूर्ण करते हैं।  


त्रिगुणात्मक प्रकृति के ज्ञान को हमने खिलाना है अर्थात इस ज्ञान को परोसा है, इसी विषय को समझने हेतु अपनी समझ को इसी बताए गए उदाहरण से जोड़ कर छोटे बच्चे की भांति समझना।  छोटे बच्चे की बात इसलिए बताई हम भी छोटे बच्चे की ही भांति, महत्वपूर्ण ज्ञान खिलाया थोड़ा डकार दिलाया जिससे वह आत्मसात हो गया और फिर पुनः खिलाया। यह सावधानी बहुत आवश्यक है चूँकि  सतो  रजो और तमो अध्यात्म पथ पर हमारे शत्रु होते हुए भी हमे जीवन निर्वहन हेतु, साथ-साथ इन दोनों की बहुत आवश्यकता भी है।

 

सामन्यतः कोई यह सोच सकता है की एक स्थान पर तो आप कहते हैं की रजोगुण और तमोगुण को हटाओ और वहीं दूसरे स्थान पर आप कहते हैं की इनकी बहुत आवश्यकता है।  यह बातें विरोधाभास उतपन्न कर भीतर भ्र्म दे रहीं हैं, क्या ठीक है और वह करें और क्या गलत है जो नहीं करें।  आखिर करना क्या है ? देखो साधक जब तक सामन्य जीवन चल रहा है तो यह जान लो की इनकी भी आवश्यकता है (रजोगुण एवं तमोगुण ). ऐसे में तुम ठीक कह रहे हो की कोई भी सामान्य बुद्धि कहेगी की करना क्या है ? एक बात बताओ यां हटाओ या रक्खो। 


साधक एक बात तो नक्की जानो की रजोगुण और तमोगुण रखना नहीं है।  पर और कितना किसलिए और कब तक रखना है, अब यह जानना आवश्यक परम् है। यह जाने बिना विवेकी दृष्टि की स्थापना नहीं होगी। खीर बनाने वाले उदाहरण से जानो। जिन्हें खीर बहुत स्वादिष्ट बनाना आती है, वह कोई अलग से पदार्थ नहीं लाते। उनके पास भी चावल, दूध बादाम, अग्नि चीनी, छोटी इलायची इत्यादि होते हैं।  पर उनके स्वाद का रहस्य होता है क्या सामग्री कब-कब किस प्रकार बनाते हुए डाली और कितनी अवधि के लिए उसको पकाया। यह छोटे छोटे सूत्र स्वाद का आकाश पाताल का अन्तर ला देते हैं।  उसी प्रकार जीवन में निर्धारित दायित्वों के निर्वहन हेतु कितना रजो कितना तमो अवश्यक है आपको इनकी व्यवस्था का ध्यान रखना है।  यह ध्यान कब तक रखना होगा।  जला दो आग और बन गई खीर।  ऐसे खीर बनती है क्या ? नहीं बनती और न ही  बन सकती है। उसका कारण क्या है। जब तक उसकी विधि, उसकी प्रणाली में है हर एक घटक को अर्थात हर एक खीर के पदार्थ को अपना सर्वस्व प्रकट करने के लिए अपनी Synergy उपस्थित करने के लिए उसके साथ वैसा व्यवहार नहीं किया जाएगा। कब - कैसे  - कितना करना है।  प्रत्येक खीर के घटक को अग्नि के संस्कार कितना देना है अर्थात कितना किसे पकाना है। बहुत कुछ निर्भर करता है एक स्वादिष्ट खीर बनाने में। खीर हमारे त्रिगुणात्मक प्रकृति में सतो - रजो और तमो के मिश्रण को समझने का बहुत सुंदर उदाहरण है। हमे भी सतोगुण की अभिवृद्धि करते हुए यह भी चाहिए की कहीं कुछ अनियंत्रित  नहीं, अमर्यादित नहीं हो जाए। जब साधक इतनी सूक्ष्म बुद्धि विकसित कर लेता है कि मुझे सतोगुण की निरंतर अभिवृद्धि करते चले जाना है, करते चले जाना और साथ ही साथ बड़ी ही बुद्धिमता से बड़ी ही सूक्ष्मता से मुझे रजोगुण और तमोगुण का मात्रा का भी ध्यान रखना है जो जीवन की आध्यात्मिक  प्रगति तीव्र और सुगम बन जाती है। जब तक ऐसी अवस्था नहीं आ जाए की अब इनकी आवश्यकता नहीं रही और आप त्रिगुणात्मक प्रकृति के संचालन से आपके भीतर का जगत पूर्णतः मुक्त हो चला।  


बहुत लोग पूछते की मैं 3 घंटे सोना चाहता हूं, 4 घंटे सोना चाहता हूं। उन्हें मैं बहुत कड़ाई से  उत्तर देता हूं।  क्यों भाई एक ही दिन में योगी बनना चाहते हो क्या ? तो चलो घर सब छोड़ो मोबाइल फोन रख दो, अपनी  घड़ी उतारो, कोपीन पहनो चलो पहाड़ पर और  ऊपर तो योगी बन जाओ।  ऐसा नहीं करना साधक, यह गलत बात है। जिन परिस्थितियों में हो उनके अनुरूप ही  विचरण करना अभी आवश्यक है भाई। छह से सात घंटे के हिसाब से, तुम्हारे दायित्व के हिसाब से निद्रा आवश्यक है। उतनी निद्रा नहीं लेंगे तो क्या होगा ? नहीं लोगे तो हो चुका तुम्हारा ब्रह्म मुहूर्त का ध्यान, हो चुकी तुम्हारी साधना - अनुष्ठान।  निद्रा के पर्याप्त अभाव के कारण सारा दिन खोए - पाए से बने रहोगे। सिर भारी रहेगा इत्यादि।  जिनका  मन करता है मैं बस सारा दिन इस वैराग्य को प्राप्त हो जाऊं । उन्हें भी अपने आपको बड़ी समझदारी से बड़े धैर्य के साथ इस बात को समझना और जानना है कि मुझे अभी तीनों गुणों की आवश्यकता है।  यह सत्य है सतोगुण की तो निरंतर अभिवृद्धि होती ही रहनी चाहिए, पर मुझे साथ-साथ इन दोनों अर्थात रजोगुण और तमोगुण को नियंत्रित रूप में बहुत ही मर्यादित स्वरूप में आवश्यकता अनुरूप बरतना है। 


आज हमने त्रिगुणात्मक विषय पर चल रहें इस ज्ञान प्रवाह में इनकी एक महत्वपूर्ण पृष्ठभूमि (Background) को लिया है। इस ज्ञान के साथ तुमने अपनी ओर से अगर ठीक से न्याय नहीं किया तो अर्थ नहीं अनर्थ - अन्याय हो जाएगा, कुछ भी सिद्ध नहीं होगा इसलिए अगर जीवन का लक्ष्य सिद्ध करना है (आत्मनो मोक्षार्थ जगत हिताय च ) तो बड़ी सूक्ष्मता से समझ कर आगे बढ़ना होगा। 



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