निश्चयात्मिका बुद्धि भाव जगत की कुंजी भाव की सामर्थ्य (आज के सत्संग का लेख)

निश्चयात्मिका बुद्धि भाव जगत की कुंजी भाव की सामर्थ्य (आज के सत्संग का लेख)
निश्चयात्मिका बुद्धि भाव जगत की कुंजी भाव की सामर्थ्य (आज के सत्संग का लेख) 
भाव जगत की सामर्थ्य पर अभी बहुत कुछ नहीं कहा है पर इतना साधक को अवश्य स्पष्ट हो जाना चाहिए की इस क्षेत्र की व्याप्ति - विस्तार सामान्य समझ से बहुत परे है।  भाव जगत शान्ति और आनन्द का अनन्त आकाश है। वही शान्ति और आनन्द जिसे साधक ब्रह्म मुहूर्त ध्यान के तत्काल उपरान्त अनुभव करते हैं।  जब साधक यह कहते हैं की ध्यान से बाहर आने का मन ही नहीं था तो वह अव्यक्त आकर्षण जिन शब्दों से सामान्यतः हुमा सम्बोधित करते हैं वह हैं "शान्ति और आनन्द". हालाँकि शान्ति और आनन्द जैसा वर्तमान में हमारी सोच है वह उतना भर नहीं है अपितु बहुत विस्तार का जगत है।  शान्ति और आनन्द भाव जगत के प्राथमिक दर्शन लाभ ही जानने चाहिएं। 

भाव जगत का अधिकार किसे है, उसे जिसकी बुद्धि पवित्र है।  जिसकी बुद्धि पवित्र नहीं है उसे इस जगत का अधिकार असम्भव है।  इसीलिए पूर्व के लेख में भी वर्णन किया गया की साधना कोई भी हो , यहां तक की वह भले ही वाममार्गी ही क्यों न हो (वाममार्गी शब्द के मर्म को लेने हेतु साधक "बाबा कीना राम जी एवं  बामखेपा जी का ध्यान करें) पवित्रता ही आधार है जिसमे किसी प्रकार का कोई समझौता नहीं किया जा सकता है। प्रश्न यही है की यह उभरता है की अंतःकरण में पवित्रता की स्थापना हेतु पहला कदम क्या उठाया जाए।  अंतःकरण में पवित्रता की वास्तविक प्राण प्रतिष्ठा तो साधना पथ की लम्बी यात्रा है जिसमे अनेकों जड़ जमाए संस्कारों को पीछे छोड़ते हुए ही साधक आगे जा सकता है।  परन्तु आरम्भ कहाँ से हो ?

इस प्रश्न का अकाट्य समाधान श्रीमद भगवद गीता जी के अध्याय 2 श्लोक 66 में आया है जिसे इस अध्यापक ने पूर्व के सत्संग में भी पढ़ाया है। 

"नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना
      न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्"


उपरोक्त विषय के प्रकाश में इस श्लोक की केवल पहली पंक्ति के भाव पर ही हम पुनः अध्ययन - मनन करें तो यह निष्कर्ष सामने आएंगे। 
आत्म उत्कर्ष की अनन्त संभावनाओं से विहीन मानस "अयुक्त" है (अस्ति बुद्धि विहीन है ) निश्चयात्मिका बुद्धि के अभाव में साधक "अयुक्त" है।  शिव संकल्पित मन के अभाव में जीव "अयुक्त" है। अतः बुद्धि की सैंकड़ो अतृप्त कामनाओं की निरंतर बलि चढ़ने वाला मन अयुक्त है। जीवन की प्राथमिकता को निश्चित कर उस पर जो आरूढ़ न होकर मृग तृष्णा की होली खेलते हैं वह "अयुक्त" हैं। मेरे द्वारा लिखित "इच्छा से संकल्प" पुस्तक जिन साधकों ने पढ़ी है उन्होंने अपनी गहराई तक जा कर अनुभव किया होगा की किस प्रकार जीवन का बहुत बड़ा अंश हम केवल और केवल अतृप्त कामनाओं की बली चढ़ाते ही चले जाते हैं।  हाथ कुछ नहीं आता पर खड़ी मोटर कार की भांति इंजन भी दौड़ता है और ईंधन भी फुकता है पर पहुँचते कहीं भी नहीं हैं। 

आवश्यकता है साधक निश्चयात्मिका बुद्धि की जो केवल संकल्पित मन में ही अवतरित होगी और जब तक निश्चयात्मिका बुद्धि का हमारे भीतर अवतरण - स्थापना नहीं होगी भाव जगत के द्वार नहीं खुलेंगे। गम्भीर हमे ही अपनी प्राथमिकताओं के प्रति होना होगा , गंभीर हमे ही इन सैंकड़ों लोलुपता भरी कामनाओं के प्रति होना होगा जिससे भाव जगत की अनंत सम्भावनाओ को हम अपने भीतर चरितार्थ होते हुए अनुभव कर पाएं। ढूंढो अपने भीतर के इन चूस जाने वाले शत्रुओं को और खदेड़ कर बाहर निकालो , जो तुम्हारी रचनात्मक सामर्थ्य का प्रति पल क्षय करते चले जा रहे हैं। 
इस विषय पर अभी और भी लिखने एवं कहने का मन है। 

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