जल रस हीन रंग हीन है वैसे आत्मा भी उपाधि रहित है, आत्म बोध आदि शंकराचार्य जी द्वारा रचित श्लोक 11

जल रस हीन रंग हीन है वैसे आत्मा भी उपाधि रहित है, आत्म बोध आदि शंकराचार्य जी द्वारा रचित श्लोक 11

ब्रह्म मुहूर्त्त ध्यान उपरान्त सत्संग - आदिगुरू शंकराचार्य जी द्वारा रचित 'आत्मबोध' - श्लोक 11

नाना उपाधि वशात ईव जाति नाम आश्रम आद्य:।
आत्मनि आरोपिता: तोये (जल) रस वर्ण (रंग) आदि भेदवत्।११।

उपाधि के शब्द पर कल पर्याप्त उल्लेख हुआ था। पहचान जो हम बटोरते हैं, पहचान जो हम एकत्रित करते हैं इस शरीर में, पहचान जो बनती और खण्डित होती है, फिर बनती फिर खण्डित होती है; वह पहचान (उपाधि)। हालांकि आदिगुरू शंकराचार्य इस पहचान को अगले आने वाले श्लोकों में एक और नया विस्तार देने वाले हैं। पहचान कहें तो उपाधि कई प्रकार की उपाधि है।

ईव - यह जीवात्मा, बल्कि उपयुक्त शब्द आत्मा है जीवात्मा नहीं; आत्मा कई प्रकार की उपाधि के वश में आकर के एक भिन्न प्रतीति हमें देती है। जबकि आत्मा मुक्त है, स्वतन्त्र है, अजन्मा है, पर उपाधियाँ जब आती हैं अर्थात पहचान बनती है, आवरण शक्ति आती है, अज्ञान शक्ति होती है (अज्ञान भी एक शक्ति है); तो कई प्रकार की उपाधियाँ जैसे जन्म से जाति, कौन से आश्रम में हैं, आप ब्रह्मचर्य में हैं सन्यास में हैं वानप्रस्थ में हैं अथवा मूल गृहस्थ में हैं।

ये सारी पहचान क्या हमारी सुषुप्ति की अवस्था में हमें होती हैं? जिसे हम dreamless state कहते हैं स्वप्न रहित अवस्था, जब हमें निद्रा में कोई स्वप्न नहीं आ रहा होता तो क्या हमें बोध होता है कि हम कौन सी जाति से हैं? किस आश्रम में हैं? ब्रह्मचर्य में हैं अर्थात हम अभी पढ़ लिख रहे हैं अथवा हम गृहस्थ में हैं अथवा हम senior citizen हो गए? अथवा कुछ भी आप मान लीजिए आप भले ही उस आश्रम को अभी ब्रह्मचर्य गृहस्थ न मानें क्योंकि वर्तमान में सब आपस में घुलमिल गए हैं, सन्यास का लाभ वर्तमान परिवेश में लगभग समाप्त ही हो गया है; पर क्या हमें अपना सब कुछ जो पहचान रूप है, उस समय बोध होता है? नहीं होता। गहरी निद्रा जो स्वप्न विहीन है उसमें ये समस्त उपाधियाँ विलय हो जाती हैं, कुछ नहीं बचता, पता ही नहीं चलता। बस हम सोए और इतनी गहरी नींद आई पता ही नहीं चला कि कहाँ हैं। सुबह उठे तो पता चला रात भर कुछ नहीं न कोई सपना बस पता ही नहीं।

अर्थात आत्मा का मूल स्वभाव पहचान रहित ही है। सुषुप्ति में हम अति निकट हो जाते हैं, होते नहीं (पहचान रहित होते नहीं) अति निकट होते हैं, तो बोध नहीं होता न जाति का न आश्रम का अर्थात पहचान के किसी भी स्वरूप का चाहे वह किसी नाम से सम्बोधित हो कुछ भी हो।

आत्मनि आरोपिता: - आत्मा पर यह सारी पहचान आरोपित है। हर श्लोक में एक उदाहरण साथ में आता है जैसे तोये (तोये जल को कहते हैं जल के देवता को तोयेश कहते हैं), रस वर्ण (वर्ण यहाँ रंग के लिए है), आदि भेदवत् - जल का क्या अपना कोई स्वाद है? नहीं है। जल का अपना कोई रंग है? नहीं है। वह रंगहीन और स्वादहीन है। पर जैसे ही उसमें कुछ डाल दीजिए रंग अथवा कोई स्वाद Flavour, शर्बत ईत्यादि Flavour ही तो हैं, कार्बोनेटेड अथवा हर्बल ड्रिंक हो कोई भी हो आप उसमें जोड़ते हैं तो जल आपको वैसा दिखने लगता है वैसा स्वाद आता है। फिर आप यह नहीं कहते कि यह पानी का स्वाद है, फिर आप कहते हैं यह शर्बत का स्वाद है।

आत्मा फिर जीवात्मा बन जाती है जैसे पानी में रस रंग डालने से एक भेद उत्पन्न हो जाता है उसी प्रकार आत्मा, जब कोई उपाधि उस पर आरोपित होती है तो वह भी किसी न किसी नाम से, किसी पहचान से जानी जाती है। अत: जल का उदाहरण विशुद्ध रूप से आत्मा के स्वरूप को समझाने के लिए दिया गया है कि वह भी रंगहीन स्वादहीन है जैसे जल में अपना कोई स्वाद नहीं कोई रंग नहीं है। यह भाव आदिगुरु शंकराचार्य जी इस श्लोक के माध्यम से समझाने की चेष्टा कर रहे हैं। पर साथ ही साथ एक बात का ध्यान रखना पड़ेगा; यह कि उपाधियों को अब विस्तार दिया जाने वाला है।

'उपाधि' बहुत महत्त्वपूर्ण शब्द है, अभी तक उपाधि शब्द को मनुष्य के स्थूल जीवन तक सीमित माना गया, उसकी उपाधि को नाम, रूप, आश्रम, नेटवर्क, सम्पत्ति ईत्यादि। पर अब वह कह रहे हैं कि नहीं, बात आत्मा की है। किसकी? आत्मा की, जीवात्मा की नहीं है। अब आत्मा और जीव‌ात्मा का भेद और स्पष्ट होना चाहिए क्योंकि जैसे ही शब्द आता है 'जीवात्मा' और फिर मैं कहता हूँ नहीं 'आत्मा'; तो प्रश्न उठता है हम तो दोनों को एक ही मानते आए हैं। हाँ, हम एक ही मानते आए हैं पर जीवात्मा में उपाधियाँ हैं आत्मा में कोई उपाधि नहीं है जल की भाँति रंगहीन स्वादहीन।

तो उपाधियाँ अभी और कौन सी रह गई? आने वाले श्लोकों में इसका प्रकाश भी आना आरम्भ होगा। कहीं न कहीं यदि ढूँढने की चेष्टा करो तो निर्वाणषटकम् की गूँज आपको आदिगुरू के लगभग सभी रचनाओं में स्तुतियाँ छोड़कर सभी में मिलेगी। वेदान्त टपक रहा है, वेदान्त ही तो है, उपनिषदों का सार ही तो है। नित्य-अनित्य आत्म-अनात्म के भेद को समझाने की चेष्टा ही तो है। उस बुद्धि को जो जीवन में सारा दिन संग्राम में उलझी रहती है उसे कुछ क्षणों के लिए ही सही, केवल फिर से खूँटे पर लाया जाता है। ठीक है बाकी दिन में विस्मृति बनती है, स्वाभाविक है सबकी बनती है। पर एक बार खूँटे पर आना, एक बार मोबाइल को बैट्री चार्ज होने के लिए लगाना आवश्यक होता है न। भले ही दो दिन की अवधि हो जाए, कई बैटरियाँ लम्बी चलती हैं पर एक बार तो चार्जिंग आवश्यक है।

यह सत्संग भी चार्जिंग है बाबू!

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